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स्वाध्यायः स्व का चिंतन

स्व का अध्ययन करने के बाद शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए। स्व को पहचाने बिना शास्त्रों का ज्ञान अहंकार को पुष्ट करता है एवं मन की तृष्णा को बढ़ाता है। स्व में यानी आत्मा में सत्य विद्यमान है। स्व में स्थिर होने वाले को नित्य योग है । जब स्व में नाम रूप नहीं रहते तब शुद्ध चैतन्य मात्र बाकी…

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आत्मबुद्धि

संसारी जीव कर्म रूप अग्नि से सदा जलता रहता है । उस अग्नि को शांत करने के लिए चारों तरफ भटकता रहता है, फिर भी अग्नि शांत नहीं होती परंतु बढ़ती रहती है। परंतु देह में रही आत्मबुद्धि को त्याग कर आत्मा में आत्मबुद्धि हो जाए तब यह आग शांत होगी। आत्मा रूपी जल कर्मरूपी ईंधन का शमन करने की…

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दृष्टि स्वरूप

देहद्रष्टया तु दासोहं , जीवद्रष्टया त्वदंशक:। आत्मद्रष्टया त्वमेवाहं , इति में निश्चिता मति:।। अर्थ:- देह दृष्टि से देखें तो मै दास हूँ ,जीव दृष्टि से देखें तो मैं आत्मा हूँ ,और आत्म दृष्टि से देखें तो मैं परमात्मा हूँ ,ऐसी मेरी द्रढ़ मति जिस प्रकार चश्मे का रंग बदलने से सामने दिखाई दे रहे दृश्य का रंग बदलता है ,…

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शुद्ध आत्म द्रव की मधुरता

आत्मद्रव्य की मधुरता का जैसे – जैसे अनुभव होता है वैसे – वैसे नित्य समताभाव की अनुभूति में अंनत काल तक रहनेवाले सिद्ध भगवंतो की तरह रहने की कुछ झाँकी मिलती है। निज स्वरूप वह जिन स्वरूप है , उसकी अनुभूति सामयिक में प्रणव (ॐ) का ध्यान करते समय कुछ अंश में होती है। उससे बहुत प्रसन्नता का अनुभव होता…

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आत्मरसिकता

आत्मा देह में रही हुई है फिर भी निर्विकल्प समाधि रूप तप के बिना अच्छे बड़े महात्मा भी उसे समझ न सके , अनुभव कर न सके। पर्याय की अपेक्षा आत्मा में उत्पत्ति और नाश ही घटित होता है और मूल द्रव्यों की अपेक्षा से, अजरत्व , अमरत्व और नित्यत्व घटित होता है। आत्मा व्यवहार से ज्ञेय(पदार्थो) को जानती है…

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