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आत्मदर्शन

तत्वज्ञान, साधक को परमात्मा के दर्शन का अधिकारी बनाता है। सांसारिक तमाम ज्ञान देह, मन और क्वचित्त हृदय को तृप्ति देते हैं, परंतु उनसे आत्मा को तृप्ति नहीं मिलती। अनंत और नित्य ऐसे आत्मज्ञान से ही वह परितृप्ति होती है। मनुष्य के समग्र व्यक्तित्व में देह,मन,ह्रदय और आत्मा समाविष्ट है। आत्मतृप्ति का साधन आत्मा का साक्षात् दर्शन है। संसार में…

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शुद्ध दृष्टि

दृष्टि में शुद्ध निश्चय का प्रकाश धारण कर स्वयं के स्वत्व को व्यक्तित्व को पूर्णता के बोध से भावित कर जो व्यवहार किया जाता है वही शुद्ध व्यवहार है। कहा भी है कि निश्चय दृष्टि ह्रदय धरीजी, पाले जे व्यवहार । पूण्यवंत ते पामशे जी भव समुद्रनो पार ।। यह दृष्टि पराश्रयी भिक्षुक वृत्ति का एक और मूलोच्छेदन करती है…

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अध्यात्म दर्शन

भगवान श्री महावीर स्वामी के दर्शन में प्रत्येक जीवात्मा द्रव्य से अनादि है ,शुद्ध निरंजन। जो कुछ अशुद्धता है वह पर्यायगत है यानी पर्याय में रही हुई है और वह औपाधिक है – उपाधि कृत है ,मूलभूत नहीं है। निश्चय दृष्टि से निगोद से लेकर सिद्धतक के सभी जीव शुद्ध है, एकरसमय है, निर्विकल्प और निर्भेद है। ‘सव्वे सुद्धा हु…

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जिव् का स्वरूप – सच्चिदानंद

जीव का स्वरूप ‘सत्त’ है इसलिए जिव सतत जीना चाहता है। जिव का स्वरूप ‘चित् ‘है इसलिए जिव सभी को जानना चाहता है। जिव का स्वरूप ‘आनंद’ है इसलिए वह हमेशा सुख की चाहना करता है। जिव में ऐश्वर्य यानी ईश्वर निहित है इसलिए जिव किसी के अधीन रहना नहीं चाहता परंतु सभी को अपने अधीन बनाना चाहता है। जीव…

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आत्मा की एकता

धर्म जगनाथनो धर्म शुची गाइए, आपणो आत्मा तेहवो भावीए।’ इस पंक्ति में तुल्यता बताई है। ‘जारिस सिद्ध सहावों तारीस होई सव्व जीवाणं’।(सिद्ध प्रार्भतिका) ‘जीवो जीवत्वावस्थ: सिद्ध इति-‘(तत्वार्थ वृति) ‘जाति जसु एकता तेह पलटे नही शुद्ध गुण पज्जवा वस्तु सत्तामयी’ इन पंक्तियों में प्रभु के साथ एकता का भाव बतलाया गया है। जीव द्रव्य का स्वभाव है कि अनादि से कर्माधीन…

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