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राजा गुणसेन तपोवन में! – भाग 8

राजा ने कुलपति को दो हाथ जोड़कर भक्त्ति भाव से कहा :
‘महात्मन’, आपने मेरे पर महान कृपा की । मेरे पास इन दो विनीत तापसकुमारों को भेजा। आपके दर्शन कर के मैं सचमुच धन्य हो गया हूं । आपका यह तपोवन तो वास्तव में जीवों को परितोष देनेवाला ही है । इसका नाम सार्थक है । उपकारी , इस तपोवन में आपको किसी भी प्रकार की प्रतिकूलता नहीं है ना ? तपस्वीजन कुशल तो हैं ना ?’
‘राजन, परमात्मा की अचिंत्य कुपा से तपोवन में कुशलता है । सभी तापस स्वस्थ एवं प्रसन्न हैं । आपके राज्य में हमें किसी भी तरह की प्रतिकूलता नहीं है । वसंतपुर के नागरिकों की हमारे प्रति भक्त्ति है….प्रेम है….आदर है । वे प्रतिदिन तपोवन का खयाल करते हैं । राजेश्वर , आपके यहां पधारने से मुझे बड़ी खुशी हुई है ।’
प्रशांत मुखमुदा देखकर और उपश्मरस से छलकती वाणी सुनकर राजा गुणसेन , कुलपति की ओर अनिमेष नयन से तकता ही रहा । कुछ क्षण ख़ामोशी में बीती । और गुणसेन की कल्पना में….महाराजा पूर्णचन्द्र और माता कुमुदिनी का तपोवन उभरने लगा । उसके दोनों हाथ अपने आप जुड़ गये । सिर झुक गया…..आंखें गीली हो गई ।
कुलपति ने राजा के चेहरे पर भावों का परिवर्तन देखा ।
‘राजन, किन विचारों में खो गये आप ?’
‘महात्मन , मेरी माता ने और मेरे पिताने, उनका शेष जीवन ऐसे ही एक तपोवन में बिताया था । मैं कई बार उनकी कुशलपुच्छा करने के लिए उस तपोवन में जाता था । उनके दर्शन करता था….उनके धर्म का उपदेश सुनता था । यहां इस तपोवन को देखकर वह तपोवन और मेरे वे पूज्य माता – पिता याद आ गये ।’
‘राजन, मनुष्य जीवन का अंतिम कर्तव्य आत्मकल्याण करना है । इस के लिए ही वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम है — निवुति मार्ग का अवलंबन लेना ही होता है ।’
‘महात्मन, क्या महल में….घर में रहकर आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता ?’
‘स्थूल धर्मक्रियाएं तो हो सकती हैं, परंतु आत्मध्यान में निमग्न नहीं हुआ जा सकता । गुहवास कि बंधनों में जकड़ा हुआ मनुष्य किस तरह और कितनी देर के लिए आत्मध्यान में निमग्न रह सकेगा ? इसलिए संसार के प्रपंच से निवुत होकर, ऐसे तपोवन में आकर शेष जीवन व्यतीत करना चाहिए ।’
‘पर …. इसके लिए आत्मकल्याण की साधना करने की इच्छा भी तो जगती चाहिये ?’
‘राजन, केवल इच्छा ही नहीं , तीव्र इच्छा — अभीप्सा जगनी चाहिए । ‘मुझे मेरी आत्मा को ‘माया’ के बंधन से मुक्त्त करनी है, इसके लिए तप और ज्ञान का मार्ग मुझे लेना है । दृश्य जगत मिथ्या है…. दृश्य जगत पर का मोह अज्ञानता है ।’ यह बात ह्रदय में जंचनी चाहिए ।’
‘अपने सच कहा है, महात्मन । मेरे मन को इस तपोवन का जीवन अच्छा लगता है । कितना निर्दोष और निष्पाप जीवन है । परंतु यह स्वीकार करने की इच्छा अभी जग नहीं रही है …। वैषयिक सुखों की स्पुहा काफी गहरी है । कब वे स्पुहाएं टूटेंगी….कम होंगी….यह समझ में नहीं आता है ।’
‘भगवद-अनुग्रह से वैषयिक सुखों की असारता समझ में आएगी….राजन । आपको….आपके मन को इस तपोवन का जीवन पसंद है, आपको तापस धर्म अच्छा लगता है ; यह आपकी श्रेष्ठता का सूचक है ।’
‘महात्मन, मेरे मन में एक इच्छा पैदा हुई है….आप मेरे पर कुपा करके , सभी तापसों के साथ मेरे राजमहल में भोजन ग्रहण करने के लिए पधारिये । मुझे बड़ा आनंद होगा ।’
कुलपति ने कहा : ‘वत्स । ठीक है…. वैसा होगा । परंतु एक महातपस्वी के अलावा हम सब आएंगे । वह महातपस्वी रोजाना भोजन नहीं करता है । महीने-महीने के उपवास के पारणे में एक दिन ही भोजन करता है । उसमें भी पारणे के दिन पहले घर पर पारणा हो तब तो ठीक है ; नही हो तो वह वापस तपोवन में लौट आता है, परंतु दूसरे किसी घर पर वह पारणा नहीं करता है । इसलिए उस महातपस्वी को छोड़कर हम तुम्हारी प्रार्थना का स्वीकार करते हैं ।

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