‘महात्मन , वे महातपस्वी कौन हैं ? और कहां पर हैं ?’
‘राजन , उस महातपस्वी का नाम है अग्निशर्मा । और देखो , वह सामने जो आम्रवुक्ष के नीचे बैठकर ध्यान में लीन बना हुआ दिख रहा है ,वही है महातपस्वी अग्निशर्मा ।’
कुलपति ने दूर से उंगली से निर्देश करते हुए आम्रवुक्ष बताया। राजा ने कुलपति से कहा :
‘महात्मन , मैं उस तपस्वी के दर्शन करके मेरी आत्मा को निष्पाप बनाना चाहता हूं ।’
कुलपति की इजाजत लेकर राजा त्वरा से आम्रवुक्ष के कुंज की और चला। मंत्री भी पीछे -पीछे चला। दोनों उस आम्रवुक्ष के नीचे आये जहां पर अग्निशर्मा बैठा हुआ था ।
— ध्यानस्थ ,
— पदमासनस्थ ,
— प्रशान्तचितस्थ।
अग्निशर्मा को देखते ही राजा गुणसेन हर्ष से सिहर उठा। उसने दो हाथ जोड़कर सर झुकाकर अग्निशर्मा को प्रणाम किया ।
अग्निशर्मा ने आंखे खोली। राजा के सामने देखा । उसके मुंह से शब्द निकले : ‘स्वगतं ते — तुम्हारा स्वागत है , बैठीये ।’
आम्रवुक्ष की छाया में , विशुद्ध जमीन पर राजा गुणसेन शांति से बैठ गये। मउन्होंने विनयपूर्वक अग्निशर्मा से पूछा :
‘भदंत, ऐसा कठिन तापसव्रत और इतनी घोर तपश्चर्या करने में कौन सा निमित्त बना था …? यदि आप योग्य समझें तो मुझे बतायें ।’
‘राजन , एक निमित्त नहीं मिला था…., अनेक निमित्त मिल गये थे। उसमें पहला निमित्त था दरिद्रता – गरीबी का ।
— दूसरा निमित्त था शरीर का बेढंगापन – बदसूरती ,
— तीसरा निमित्त था लोगों द्वारा सतत पराभव – विडम्बना।
-और चौथा निमित्त था मेरा कल्याणमित्र महाराजकुमार गुणसेन ।’
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