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दान, पुण्य और धर्म की एकरूपता
दान, पुण्य और धर्म यह तीनों शब्द एक ही अर्थ के वाचक और एक ही कार्य के साधक है, अंतिम फल मोक्ष है और वह प्राप्त न हो तब तक मोक्ष के साधन और अनुकूलन उत्तमोत्तम सामग्री-भूमिका आदि प्रदान कराएं यही इन तीनों का कार्य है। इतना ही नहीं, मोक्ष के साधन रूप इन तीनों का साधन तथा हेतु भी…
कर्म का अबाधित नियम
एक ऐसा सनातन नियम है कि जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। इसीलिए जब भी कोई भी कार्य सिद्ध करना हो, तो उसके कारणों को खोजकर उसमें प्रवृत्ति करनी चाहिए। आम फल यदि चाहिए तो उसी का बीज बोना पड़ेगा और नीम यदि चाहिए तो उसका बीज बोना पड़ेगा। अनपढ़ किसान भी इस सिद्धांत को जानता है…
पुण्य पाप की शुभाशुभता
नमस्कार पुण्य जैन दर्शन नवतत्त्वमय है। इनमें से एक तत्त्व पुण्य तत्त्व है। इसका प्रभाव जानने-समझने जैसा है। मात्र पुण्योदय पर मोहित नहीं होना है और पापोदय मात्र तिरस्कार का पात्र नहीं है। पुण्य-पाप इन दोनों के अनुबंध की विचारणा करके उनकी शुभाशुभरूपता निश्चित कर सकते हैं। पुण्यानुबन्धी पुण्य आत्मा को पवित्र बनाता है, ऊपर चढ़ाता है और सुख की…
करना-कराना और अनुमोदना
ज्ञानी पुरुषों ने करने, कराने और अनुमोदना का एक समान फल बताया है। उसका कारण यही है कि तीनों परस्पर संबंधित है। करने में कराने में और अनुमोदन का, कराने में करने और अनुमोदन का एवं अनुमोदना में करने और कराने का भाव जीवंत तो हो तो यह तीनों वास्तविक रूप से कार्यसाधक और फलदायक बनते हैं, इन तीनों का…
पुण्य प्रदाता तीन योग
ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष: ज्ञान बिना की क्रिया या क्रिया बिना का ज्ञान अपने पूर्ण फल को देने में समर्थ नहीं बनते। यह दोनों जब तक अकेले होते हैं, तब तक यह मोक्षसाधन नहीं बन सकते। मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान और क्रिया दोनों के सुमेल से होती है। मोक्ष की प्राप्ति में ज्ञान के साथ क्रिया की आवश्यकता ही पुण्य की आवश्यकता…