पश्चात्ताप
संभूतिविजय आचार्य भगवंत के वैराग्यपूर्ण धर्मोपदेश को सुनने से श्रीयक के मन में भी इस संसार के प्रति वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ और वह दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गया । चरित्र धर्म अंगीकार करने की श्रीयक की इच्छा जानकर उसकी 7 बहिनें भी दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गई . . . और एक शुभ दिन श्रीयक ने अपनें पुत्र श्रीधर को मंत्रिपद प्रदान कर राजा की आज्ञा प्राप्त कर, अपनी सातों बहनों के साथ संसार के बंधनों का परित्याग कर भागवती दीक्षा अंगीकार कर ली ।
भागवती दीक्षा अंगीकार करने के बाद श्रीयक मुनि अपनें गुरुदेव के साथ पृथ्वीतल पर विचरनें लगे। पूर्व के क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय के कारण श्रीयक के लिए उपवास आदि बाह्य तप की साधना अत्यंत ही कठिन थी।
इस प्रकार दिन पर दिन बीतने लगे और पर्युषण महापर्व के दिन आए । क्रमशः संवत्सरी का दिन आया।
श्रीयक मुनि प्रतिदिन नवकारसी का पच्चक्खाण करते थे। उस दिन श्रीयक की बहिन यक्षा ने कहा, `बंधु मुनिवर! आज वार्षिक पर्व का दिन है, अतः रोज की अपेक्षा कुछ विशेष तप आराधना करनी चाहियें , क्योंकि पर्व दिनों में दान- पुण्य-तप आदि करने से विशेष लाभ होता है।’
बहन साध्वी के प्रेरणा से श्रीयक मुनि ने उस दिन पोरिसी करने का निश्चय किया।
तत्पश्चात् पुनः यक्षा साध्वी ने प्रेरणा दी। इसके फलस्वरूप उन्होंने साढ पोरिसी का निर्णय लिया। तत्पश्चात् पुनः- पुनः प्रेरणा होने से पुरिमडढ, अवड्ढ और क्रमशः उपवास का पच्चक्खाण कर लिया ।
पूरा दिन तो प्रवचन , महोत्सव आराधना आदि में आराम से बीत गया।
रात्रि प्रारम्भ हुई । अत्यंत क्षुधा के कारण उनकी नींद हराम हो गई । और अंत में उसी रात्रि में पंचपरमेष्ठी भगवंत का स्मरण करते हुए अत्यंत समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए।
प्रातः काल होने पर जब यक्षा साध्वी को इस बात का पता चला तो उसे अत्यंत ही आघात लगा । उसने श्री संघ को कहा , `मैंने बिना सोचे समझे ही उनको उपवास करा दिया . . . और उसी कारण उनकी मृत्यु हओ गई . . . अतः मुझे मुनि – हत्या का पाप लगेगा . . . मैं इस पाप में से कैसे छूट पाऊंगी, अहो! मुझे नरक में जाना पड़ेगा . . . मैं किसी को मुंह दिखाने के लिए योग्य नहीं हूँ । अतः मैं आत्मघात कर मर जाऊंगी।’
श्री संघ ने कहा , `इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। तुमने तो हितबुद्धि से ही उनके पास उपवास कराया है; अतः तुम निर्दोष हो । तुम्हें तो पुण्य ही होगा।
उसने कहा , मै जिनवचन के बिना मानने के लिए तैयार नही हु।
उसी समय संघ ने कायोत्सर्ग की साधना की । जिसके प्रभाव से शाशन देवी प्रकट हुई और उन्हें सीमंधर स्वामी के पास ले गई।
यक्षा साध्वी ने सीमंधर स्वामी भगवंत के आगे अपने पापो का निवेदन किया।
भगवंत ने कहा, तुम निर्दोष हो। श्रीयक मुनि तो उपवास के प्रभाव से कर्मो की अपूर्व निर्जरा कर प्रथम देवलोक में गये है और भविष्य में वे मोक्ष में जाएंगे।
उसके बाद सीमंधर स्वामी ने धर्मोपदेश द्वारा यक्षा साध्वी को चार चूलिकाए प्रदान की।
यक्षा साध्वी ने वे चारो चुलिकाए अपने ह्रदय में धारण की । तत्पश्चात शाशन देवी ने यक्षा साध्वी को पुनः अपने स्थान पर लाकर रख दी।
यक्षा साध्वी ने वे चूलिकाए संघ को अर्पित की। उनमे से दो चूलिकाए आचारांग सूत्र व दो चूलिकाए दशवैकालिक सूत्र के साथ जोड़ दी गई। जो आज विद्यमान है।