राजा अपना नाम सुनकर चोंक उठा। उसकी आंखे विस्फारित हो उठी। उसके चेहरे पर आश्चर्य और अवसाद की मिश्र रेखाएं उभर आई । उसने अग्निशर्मा का नाम कुलपति से सुना था …. और अग्निशर्मा के समीप रुबरु बैठकर वार्तालाप कर रहा था, विस्मृति की खाई में अग्निशर्मा दबा हुआ था। वह अग्निशर्मा यादों के मंजर में नहीं था… पर सामने रुबरु बैठा हुआ था ।
‘राजकुमार गुणसेन ? महातपस्वी , वह गुणसेन आपका कल्याणमित्र किस तरह हुआ ? और इतनी घोर तपश्चर्या में व सन्यास ग्रहण करने में वह कैसे निमित्त हो गया ?’
अब भी राजा अग्निशर्मा को नहीं पहचान पा रहा है…। पहचानने की कोशिश कर रहा है मन ही मन। विस्मृति की खाई से बरसों की…. लाखों बरसों की मिट्टी हटाने की कोशिश करता है…. इधर अग्निशर्मा ने सस्मित कहा :
‘राजन, जो उत्तम-श्रेष्ठ पुरुष होते हैं… वे स्वयं अंत:करण की प्रेरणा से धर्म प्राप्त करते हैं …।
जो मध्यम कक्षा के पुरुष होते हैं… वे किसी की प्रेरणा या मार्गदर्शन से धर्म का रास्ता ग्रहण करते हैं…।जबकि अधम-निग्न स्तर के मुनष्य तो औरों की प्रेरणा मिलने पर भी धर्म को प्राप्त नहीं करते। उन्हें धर्म अच्छा ही नहीं लगता ।
‘राजेश्वर, यह संसार तो कारावास है। संसार – कारावास के असीम दुःखों से मुक्त्त करने के लिए कोई भी व्यक्त्ति, किसी भी प्रकार से धर्म की ओर प्रेरित करता है ,….
तो वह वास्तव में हितकारी है । ऐसे हितकारी पुरुष को मैं कल्याणमित्र ही मानता हूं । महाराजकुमार गुणसेन को मैं उसी रूप में कल्याणमित्र मानता हूं । मेरी कुमारावस्था के दौरान यदि उसने मेरा घोर उत्पीड़न नहीं किया होता तो मैं तापसधर्म को प्राप्त ही नहीं कर सकता था। और आत्मा निर्मल बननेवाली तपश्चर्या भी नहीं कर सकता था। ‘
राजा की आंखे बंद थी…. विस्मृति की गहरी खाई में दबी हुई… एक आकुति…. बदसूरत चेहरा… धीरे धीरे आकार ले रहा था ।
–तिकोना सिर
–गोल भूरी आंखें
–बिलकुल चप्पट नाक
–छेद से दो कान
–लंबे लंबे दांत
–टेढ़े मेढे व छोटे से हाथ
–छोटा….सीना
–लंबा-टेढ़ा सा पेट
–मोटी सी जंघाएं
–चौड़े…. टेढ़े….पैर
–पीले….खड़े केश
–चेहरे पर भय…. संत्रास और दीनता….
–आंखों में बेबसीभरी दया की याचना….
–खून से सना हुआ जख्मी शरीर…..
‘ओह ।
यही वह अग्निशर्मा । ।
वही ब्राह्मण पुत्र । ।
आगे अगली पोस्ट मे…