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भीतर का श्रंगार – भाग 10
राजपुरुष श्रीदत्त की हवेली पर पहुंचे। श्रीमती से कहाँ: हम सेठ की संपत्ति लेने आये है । भाई…. ले जाइए…. सारी संपत्ति ले जाईये…. सेठ पूरी संपत्ति इस पिटारे में भरकर गए है… पूरा पिटारा ही लजाओ …. ये चाबियां रही । राजपुरुष पिटारा उठाने गए …तो पिटारा काफी वजनदार लगा ….वे खुश हो उठे ! जरूर पिटारे में ढेर…
भीतर का श्रंगार – भाग 9
चौथे प्रहर का प्रारंभ हुवा और दरवाजा बजा : ठक् ठक् …. महामंत्री चमका… कौन होगा ? श्रीमती दरवाजे तक जा कर आई और कहा : महाराज पधारे है !’ महाराजा ? यहाँ पर ?अभी ? मै मर जाऊंगा ! अब कहा जाऊ? क्या करूँ? ऐसा कर तू मुझे छुपने की जगह बता दे …. मै तेरे पैरो गिरता हु…
भीतर का श्रंगार – भाग 8
पहला प्रहर ज्यों त्यों बिता देना है। इन राक्षसी दरिंदों को पाठ पढना ही होगा। तो जरा भी गबराना मत। परिचारिका चतुर थी। श्रीमती की बात उसने बारबर समझ ली । रात्रि का अंधकार छाने लगा…. और पुरोहित आ पहुंचा। दासी ने स्वागत किया। शयनखंड में ले आई।श्रीमती ने सोलह शृंगार सजाये थे । आंखों के कटाक्ष करके उसने पुरोहित…
भीतर का श्रंगार – भाग 7
श्रीमती पहले तो चक्कर खा गयी… उसने महामंत्री को बहुत समझाया… पर महामंत्री उसके आगे प्रेम की भीख मांगने लगा… कुछ सोचकर उसने महामंत्री को रात के तीसरे प्रहर मे अपनी हवेली पर आने का कहा। महामंत्री तो खुशी से नाचने लगा। श्रीमती का मन बिलख रहा था .. जहाँ सहायता को जाती थी… वही नई मुसीबत उसे घेर रही…
भीतर का श्रंगार – भाग 6
हे पुरोहित! इस लोक में पाप से अत्यंत आच्छादित व्यक्ति को कुछ भी सुख नही होता है। मनुष्य का जीवन क्षमाभंगुर है इसलिए धर्म मे बुद्धि रख। श्लोक के चारो चरणों के प्रथम अक्षर के जरिये ‘नेच्छामि ते’ में तुम्हे नही चाहती हु वैसा जवाब दे दिया। उस दिन तो पुरोहित चला गया.. पर उसने अपने मन मे निर्णय किया…