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रावण की प्रतिज्ञा

राजा इंद्र से हुए महायुद्ध में विजेता होकर राजा रावण लंका वासप लौट रहे थे कि रास्ते में *अंतन्तवीर्य* नामक वीतराग केवली भगवान के उन्हें दर्शन हुए। स्वयं को धन्य मानते हुते रावण उनके पास गए। वंदनादि करके केवली भगवान की धर्मदेशना का श्रवण किया।
देशना पूर्ण होने के बाद रावण ने उनसे एक प्रश्न पूछा: *हे भगवंत!* आप जैसो की महती कृपा से पुण्य के उदय का सहयोग मिलेगा तो मै शायद जीवन तो आनंन्दपुर्वक जीने के लिए भाग्यवान हो सकूंगा, पर मेरे मरण का क्या?? यदि मेरी अनिष्ट रूप से हुई तो मेरा समग्र जीवन कलंकित होगा। उपरांत मृत्यु के क्षणो की चित्त की शुभाशुभ स्थिति (लेश्या) के ऊपर ही परलोक की सद्गति का आधार है। अतः मेरी मृत्यु बिगड़ी तो परलोक भी बिगड़ेगा।
अतः हे भगवंत! आप त्रिकालज्ञानी है तो मेरा यह विनम्र प्रश्न है कि , *इस सेवक की मृत्यु कैसे होगी*?
भगवंत ने उत्तर देते हुए कहा- *लंकापति! आपकी मृत्यु परस्त्री के कारण होगी।*
यह सुनते बोल पड़े: *अरे!अरे! भगवन् ! राजा रावण के ललाट पर परस्त्री का काला कलंक ?? मै यह क्या सुन रहा हूँ?? प्रभो! और कुछ भी सुना जा सकता। है पर यह भविष्यवाणी मै सुन नही पा रहा हूँ। ओह! लंकापति दुराचारी होगा? परस्त्री की ओर वह कृद्दष्टि करेगा? इस हद तक वह अधम होगा ?*
रावण का अंतःकरण बहुत पीड़ा का अनुभव करने लगा। कुछ ही पलों में स्वस्थता धारण कर वे पुनः कहने लगे : *भगवन्! मुझसे यह कटुसत्य सहा नही जा रहा, मै आत्महत्या करने के लिए तत्पर हूँ पर ऐसा कलंकित जीवन तो मै कैसे भी करके जी नही पाऊंगा। प्रभो! आप तो सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, आपका वचन तो त्रिकालबाध्य ही है, मुझे इस बात में कोई शंका नही है परन्तु मुझे एक प्रतिज्ञा लेनी है, सावधानी बरतनी है, ललाट पर लिखे को मै निष्प्रभाव करना चाहता हूँ……..*
मुझे प्रतिज्ञा दीजिए: *यदि परस्त्री नही चाहेगी तो मै उसका संग नही करूँगा* (परस्त्रीयमनिच्छन्ती रमिष्यामि नद्महम्)
“भगवन्! मै अपनी जान देकर भी इस प्रतिज्ञा का पालन करूँगा।”
” और यदि ………इस प्रतिज्ञा का ठीक से पालन हुआ तो इससे संबंधित कोई कालिख मेरे ललाट पर लगने की सम्भावना रहती नही है”
रावण की याचना को अंतन्तवीर्य केवली ने अनुकूल होकर प्रतिज्ञा दी। राजा रावण संतुष्ठ हो गया। इस कलंक से स्वयं अब पूर्णरूपेण निर्भय हो गया हसि। ऐसी प्रसन्नता का अनुभव करते हुए रावण ने केवली भगवंत की वंदना की और वहां से बिदा ली।
अकाट्य कर्मो की आंधी से लड़ लेने की प्रतिज्ञा से प्रतिबद्ध होकर पुरुषार्थ करने वाले राजा रावण! आप धन्य है! यदि आपने यह प्रतिज्ञा नही ली होती, यदि आपने उसका पालन नही किया होता तो सचमुच परस्त्रीगमन का पाप आपकी देह को अपवित्र कर गया होता। एक महासतीजी के जीवन का आपने शायद असमय ही इत्यलं कर दिया होता!
वंदन हो………..परमात्माओ के प्रतिज्ञा के आयोजन को!
प्रतिज्ञा ने असंख्य पापो से कितनो को बचा लिया होगा??
जिसने सावधानी बरती, प्रतिज्ञा की, उनके जीवन पापो की प्रचण्ड बाढ़ में डूबने से, खिंचे चले जाने से…. मरने से आबाद बच गये।
इतिहास के अनेक पृष्ठ इस सत्य के साक्षी है।

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