साधू-साध्वी जो अपने जीवन निर्वाह के लिए शुद्ध आहार–पानी ग्रहण करते है, उसे गोचरी कहते है। पंच महाव्रतधारी साधु-साध्वियों को श्रावक निर्दोष आहार–पानी बहरावें, उसे सुपात्र दान कहते है। सुपात्र दान देने से कर्मो की महान् निर्जरा होती है!
सुपात्र दान देने के लिये निम्न बातों का ध्यान रखना आवशयक है—
असूझता व्यक्ति दरवाजा ना खोले यानि कच्चा पानी, हरी सब्जी या Electronics घड़ी,
मोबाइल आदि से संयुक्त हो, तो दरवाजा नहीं खोलना, बहराने के लिए भी आगे नहीं आना। घंटी नहीं बजाना, फूँक नहीं मारना, चुटकी-ताली नहीं बजाना।
सात–आठ कदम सामने लेने जावे। सिर झुकाकर “मत्थेएण
वंदामि” बोले ।
महाराज साहब को देखकर लाईट–पंखा, टी.वी. आदि को ऑन-ऑफ न करें, जैसे है वैसे ही रहने देवें ।
कच्चा पानी, हरी वनस्पति, ऊग सके ऐसे बीज जैसे राई, सरसों, धनिया, कच्चा जीरा, कच्चा नमक आदि पदार्थो को तथा कच्चा सलाद, अंकुरित धान्य, फ्रिज, अग्नि से स्पर्श किये हुए पदार्थो को बहराने के लिये नहीं उठाएँ ।
आहार-पानी के बाद औषध- भेषज, वस्त्र, पात्र अन्य कोई सेवाकार्य हो, तो पूछें। स्थानक में, धर्मस्थान में, गोचरी के लिए मेरे घर चलो ऐसा न कहें।
अहो भाव पूर्वक बहरायें, मन में प्रसन्नता के भाव रखें तथा बोलें बड़ी कुपा की, बारम्बार हमें सेवा का मौका प्रदान करें। पदार्थ शुद्धि, पात्र शुद्धि और पश्चात् शुद्धि का ध्यान रखना विवेक है ।
आस-पास के घर बतावें एवं गली तक पहुँचाने जावें! बहराते हुए अन्नादि से हाथ भर जाये, तो कच्चे पानी से नहीं धोना!
गोचरी की यतना रखना या बैठकर बहराना!
आहार पानी बहराते हुए घुटने के ऊपर से गिर जावे तो घर असुझता हो जाता है।
निर्दोष आहार पानी बहराना चाहिए! साधु–साध्वियों के निमित्त आहार-पानी नहीं बनाना चाहिए।
ऋषभदेव व महावीर ने पूर्वभवों में सुपात्र दान देकर धर्म का मूल समकित प्राप्त किया एवं कालांतर में तीर्थंकर बने।
शालीभद्र ने पूर्वभव में तपस्वी संत को खीर बहराई एवं अतुल वैभव के मालिक बने।
नेम–राजुल ने पूर्वभव में प्रासुक जल संतों को बहराया एवं महान् लाभ तीर्थंकर गौत्र बंध को प्राप्त किया!!!