परमात्मा का ध्यान उनके आज्ञापालन द्वारा, उनके गुण-चिंतन द्वारा, उनके नाम रूप द्वारा हो सकता है।
आत्मध्यान हेतु नवपदात्मक परमात्मा का आलंबन अनिवार्य है।
वह आलंबन उनके नाम, रूप और गुणचिंतन में एकाग्रता द्वारा होता है। नाम, रूप और गुणचिंतन के लिए जो निर्मलता चाहिए, वह अहिंसा, संयम और तप के अनुष्ठान द्वारा प्राप्य है।
अहिंसा द्वारा पापनिवृत्ति, संयम द्वारा दु:ख निवृत्ति और तप द्वारा कर्मनिवृत्ति होती है। इस कारण सभी महापुरुष, सभी जीव पापरहित, दु:ख रहित और कर्म रहित बने और उनके लिए अहिंसा, संयम और तप के आराधक बने, ऐसी भावना निरंतर करते हैं। उस भावना का नाम मैत्री भावना है। अर्थात संत पुरुषों के ह्रदय में सभी जीवो के लिए प्रेम है, उस प्रेम की अभिव्यक्ति ‘सभी जीव पापरहित, दु:ख रहित और कर्म रहित बने’ ऐसी भावना में है।
पाप का मूल हिंसा है, दुख का मूल असंयम है और कर्म का मूल और असहनशीलता है। अतः दु:ख को सहन करनेवाले, सुख का त्याग करनेवाले और धर्म का सेवन करने वाले सभी बने, ऐसी भावना धर्म के मूल में है।
इस भावना को सफल करने के लिए उसके स्वामी श्री अरिहंत परमात्मा की उत्तम भक्ति अनिवार्य है। उनके नाम-रूप-गुण में रमणता अनिवार्य है।
उत्तम गुणों के आधारभूत उनके शुद्धात्म द्रव्य का ध्यान-स्मरण-पूजन आदि करने से चित्त तन्मय बनता है।