अग्निशर्मा का मन, गुणसेन के विचारों में प्रवुत्त हो गया था । वह सोचते है
-यदि मैं मना करता या उसका निमंत्रण ठुकरा देता तो उसे बहुत दुःख होता ….। उसे मेरे पवित्र आशय में संदेह होता । ‘यह अग्निशर्मा संन्यासी हो गया… ठीक है , परंतु उसके दिल में मेरे प्रति अब भी द्वेष है… इसलिए मेरे घर पर पारणा करने की मनाई कर रहा है ।’
–मुझे उसके प्रति कभी द्वेष हुआ ही नहीं है । हां, जब वह मुझे अत्यधिक पीड़ा देता था , तब मुझे उस पर गुस्सा आता था
…, पर वह टिकता नहीं था ।
–लाखों बरसों के बाद वापस हम यहां मिल गये । कैसे जोग और कैसे संजोग ? ईश्वर की इच्छा बलवती है ।
–मैं उसके महल पर राजमहल में पारणे के लिए जाऊंगा। उसे संतोष होगा। उसके मन में मेरे लिए तनिक भी शंका नहीं रहेगी। वो समझेगा कि
‘अग्निशर्मा ने मुझे मेरे गुनाहों की क्षमा दे दी है ।’ इससे उसकी आत्मा को भी शांति मिलेगी ।
–और यदि पारणे के दिन समय मिल गया तो उसे पूछूुंगा कि ‘मेरे नगर त्याग के बाद मेरे माता – पिता का क्या हुआ ? मेरे प्रति उन्हें अति प्रेम था। मेरी जुदाई का उन्हें बड़ा आघात लगा होगा ।’
–यह भी पूछ लूंगा कि मुझे खोजने के लिए तुमने कोशिश की होगी ? मेरी खोज में चरों तरफ आदमी भेजे होंगे ।
कुलपति ने भी पारणे के लिए राजमहल में जाने की इजाजत दे दी।
राजा के चित्त को आश्वासन मिला । अच्छा हुआ यह। सचमुच कुलपति तो स्नेह और वात्सल्य के सागर ही है। अमूत के सरोवर से है । उनकी कुपा के सहारे ही मैं इतनी घोर तपश्चर्या कर सकता हूं । मेरा कितना ख्याल करते है वे ? भगवान से मेरी तो यही प्रार्थना है कि जनम-जनम तक मुझे इन्हीं कुलपति की छत्रछाया मिलती रहे ।’
—अग्निशर्मा दिन गिनता है….।
‘अब…. चार दिन बाकि रहे….
अब तीन दिन शेष रहे….
अब दो दिन बाकी रहे….
और अब तो कल ही मुझे राजमहल पर जाना है — पारणे के लिए ।
–राजा गुणसेन भी दिन गिनता है ।
‘कल सबेरे तो महातपस्वी मेरे महल को पवन करेंगे । मैं उनका हार्दिक स्वागत करुंगा ।’