पूरी बात सुनकर परिचारिका ने सुरसुन्दरी से पूछा :
कहिए…दैवी ! आप मुझसे क्या चाहती है ?
आप जो भी साथ सहयोग मांगेगी.. में दूँगी ! मुझे तुमसे हमदर्दी है…।
‘मेरे साथ धोखा तो नही होगा न ?
‘धोखा ?
धोखा करने वाले होंगे..अमरकुमार… धनंजय और फानहान … जैसे आदमी लोग ! यह सरिता उनमे की नही ! भरोसा करना मेरे पर ! सरिता कभी धोखा नही करेंगी ! तो तू मुझे यहाँ से भागने का रास्ता बता दें ! में तेरा उपकार कभी नहीं भूलूंगी !’पर जाना कहा है ? जहाँ मेरी किस्मत ले जाये मुझे वहां ! ‘इस तरह यदि किस्मत के भरोसे ही रहना हो तो फिर तुम्हारी किस्मत तुम्हे यहां ले ही आयी है..यही रह जाओ न ? और कहाँ कहाँ भटकोगी ! ‘ यहाँ ? नही…यहाँ तो बिल्कुल नही रहना है…मुझे तू इस नगर के बाहर पहुंचा दे…. फिर मै जंगल की शरण में चली जाऊँगी ! मेरा शील सलामत रहे…बस ! मुझे और कुछ नही चाहिए ! सरिता खड़ी हुई। उसने कमरे के बाहर जाकर इधर उधर देख लिया फिर दरवाजा बंद करके भीतर आई।
कल सुबह तड़के ही में यहाँ आऊंगी,तुम तैयार रहना।नगर के बाहर तुम्हें में ले चलूँगी। फिर कहा जाना यह तुम तय करना। पर एक बात तुम लीलावती से आज ही कह देना कि ‘मेरा स्वास्थ्य ठीक नही है..मुझे गुप्त रोग की पीड़ा है…किसी अच्छे वैध को मेरा शरीर दिखाना है। कुछ दिन औषध-उपचार करलूं… ताकि शरीर तन्दरूस्त हो जाय। फिर पुरषो को रिझाने का कार्य भलीभांति हो सकेगा।
तूने कहा वैसे में बात तो कर दूँगी..पर उस वैध की यहाँ बुलाएगी तो ?
‘नही, वो वैध यहाँ आयेगा ही नही ! वह काफी बूढा है, गांव के दरबार पर रहता है…और इस भवन की किसी भी औरत को शरीरिक बीमारी हो तो उसे उसी वैध के पास ही लीलावती भेजती है। वैध लीलावती का विश्वासु भी हैं।
‘पर, वह खुद मेरे साथ आयेगी तो ?
नहीं.. तुम्हारे साथ वह मुझे ही भेजेगी। वह खुद तो क़भी भी किसी स्त्री के साथ वैध के यहाँ जाती ही नहीं है।
सुरसुन्दरी गहरे विचारो में डूब गयीं :
मेरे खतिर सरिता तो परेशानी में नही फंसेगी न ?
सरिता बोली : ‘तुम मेरी चिंता कर रही हो न ?
‘हा, पर तूने कैसे जान लिया।
‘तुम्हारे वो यक्षराज आकर मेरे कान मे फुसफुसा गये।’
और सरिता हँस दी।
सुरसुन्दरी भी हास्य को न रोक सकी।
कई दिनों बाद उसके चेहरे पर हास्य के फूल खिले थे।
आगे अगली पोस्ट मे…