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वैराग्य और भक्ति

भवनिर्वेद और भगवद बहुमान एक ही प्रयोजन की सिद्धि के लिए 2 उपाय है। भगवान भव से मुक्त हो गए हैं यानी विषय कषाय से सर्वथा रहित बन गए हैं। इस कारण विषय-कषाय से मुक्ति की इच्छा यह भगवद बहुमान है।

दोषदर्शन रूप वैराग्य द्वारा विषयों से मुक्ति और गुणदर्शन रूप भक्ति से कषायों से मुक्ति मिलती है।

कषायों की उत्पत्ति विषयों के राग में से होती है अतः विषयों में दोषदर्शन कषायों का मंद करता है। मंद बने कषाय जीवो में रहे गुणों के दर्शन से निर्मूल होते हैं।

दोष विषयों में देखना और गुण जीवो में देखना चाहिए, यही तात्पर्य अर्थ है। अनंत गुणमय आत्मा किसी भी संयोग में तिरस्करणीय नहीं है एवं विषय-कषाय किसी भी संयोग में आदरणीय नहीं है, यह सदा स्मरण में रखना चाहिए।

श्रद्धा का ज्ञान, साधना में निष्ठा पैदा करता है, भक्तिमान का ज्ञान साध्य में निष्ठा पैदा करता है। साध्य की श्रेष्ठता का ज्ञान भक्तिवर्धक बनता है साधना की श्रेष्ठता का ज्ञान श्रद्धावर्धक बनता है।

भक्ति यह शक्कर खाने की क्रिया है और ज्ञान यह शक्कर यह बनने की क्रिया है। शक्कर खाने में स्वयं को आनंद है, शक्कर बनने में दूसरों को आनंद मिलता है। शक्कर बनने की अभिलाषा यह सिद्धिपद प्राप्त करने की अभिलाषा है।

भक्त को आत्महित की आकांक्षा है। भगवान को पर का हित इष्ट है। ‘सवि जीव करुं शासन रसी’ कि जो परहित की अभिलाषा पूर्व के तीसरे भव में थी, वह अंतिम में स्वभावभूत बन गई। अब भगवान का आलंबन जो लेता है उसका भगवान हित करते ही हैं। परहित की अभिलाषा उत्पन्न हुई, उसके साथ ही वह अब साधक मिटकर सिद्ध बनने की प्रक्रिया में जुड़ता है।

सिद्धत्व की प्राप्ति में प्रतिबंधक कोई है तो वह परहित प्रति का प्रतिबंध है, उदासीनता है। ऐसी उदासीनता दूर होते ही साधक सिद्ध बनने लगता है।

भक्ति से त्याग-वैराग्य सुलभ बनता है।

प्रभु को सर्वस्व समर्पण करने वालों को त्याग बहुत सरल हो जाता है।

वैराग्य को तीव्र बनाने से प्रभु पर प्रीति बढ़ती जाती है और प्रभु पर प्रीति बढ़ने से प्रभु का अनुग्रह होता है।

यह अनुग्रह शरणागति से आता है।
उसके 6 प्रकार है_
(1) अनुकूलता का संकल्प
(2) प्रतिकूलता का विसर्जन
(3) असहाय का प्रकटीकरण
(4) संरक्षण का विश्वास
(5) आत्मा का समर्पण
(6) सम्मान का दान

इन सभी में दास्यभक्ति सर्वश्रेष्ठ है। दास्य भक्ति में देह, इंद्रिय, प्राण, अंत: करण और आत्मा का निवेदन है।

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