ह्रदय में ज्योतिर्मय प्रतिमा की कल्पना करना, चतुर्मुख कल्पना अधिक अनुकूल बनेगी। प्रकाश में उज्जवल वर्ण के भगवान का थोड़े क्षण ध्यान करना चाहिए।
भगवान प्रेम रूप है। ह्रदय में रहे भगवान में से चारों और प्रेम की फुहारे उठती है। इन फुहारों का प्रवाह अपने शरीर में फैलता है।
अपने खून की बूंद-बूंद और आत्मप्रदेश प्रेमरूप बनते हैं। हम स्वयं ही प्रेम स्वरूप बनते हैं।
भगवान आनंदरूप है। पूर्ण आनंदमय है। यह आनंद सुधा भगवान में से निकल कर अपनी समग्रता में फैलती है। हम आनंद स्वरूप होने का अनुभव करते हैं।
भगवान अव्याबाध सुख स्वरूप है। यह सुख भगवान में से हमारी आत्मा में फैलता है और हम सुखमय बनते हैं।
भगवान अचिंत्य शक्तियुक्त है। उस शक्ति का प्रवाह अपनी समग्रता में फैलने से हम शक्ति स्वरूप बनते हैं। महान कार्य सिद्ध करने में शक्तिवाले बनते हैं।
भगवान तो समृद्धि के भंडार हैं। उनमें से समृद्धि हमारी आत्मा में आती है। हम समृद्धि से पूर्ण बनते हैं।
ह्रदय में रही भगवान की प्रतिमा धीरे-धीरे बड़ी बनती जाती है। आगे बढ़कर अपने शरीर प्रमाण बनती है। अब हम परमात्मा स्वरुप है, पूर्ण है, उस पूर्ण स्वरूप को कुछ समय निर्निमेषपूर्वक देखते रहे तो पूर्ण प्रेमानंदमयता का अनुभव होगा, साथ ही अन्य सभी अवस्थाओं की पराधीनता छूट जाएगी।
ध्यान के इस प्रयोग से सच्चे आनंद और सुख का अनुभव होता है, उद्वेग और अशांति के स्थान पर आनंद और शांति का अनुभव होता है।