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दान, पुण्य और धर्म की एकरूपता

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दान, पुण्य और धर्म यह तीनों शब्द एक ही अर्थ के वाचक और एक ही कार्य के साधक है, अंतिम फल मोक्ष है और वह प्राप्त न हो तब तक मोक्ष के साधन और अनुकूलन उत्तमोत्तम सामग्री-भूमिका आदि प्रदान कराएं यही इन तीनों का कार्य है। इतना ही नहीं, मोक्ष के साधन रूप इन तीनों का साधन तथा हेतु भी एक ही है और वह परोपकार ही है यानी दान, पुण्य और धर्म परोपकार से ही होते हैं।

अभयदान, विषय-वैराग्य, देव-गुरु की पूजा, विशुद्ध शीलवृत्ति यानी दया, दान, सदाचार, और परपीड़ा परिहार, परानुग्रह, परोपकार और स्वचित्त का दमन, संयमपालन आदि पुण्य की अभिवृद्धि कारक होने से ‘पुण्यानुबंधी पुण्य’ कहलाते हैं।

उपर्युक्त पुण्य स्वरूप दया, दान, परोपकार आदि के सेवन से आत्मा का परिणाम यानी भाव निर्मल बनता है। इससे अशुभ कर्मों का बंध वहीं होता है और पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होती है इसीलिए इसे ‘भाव धर्म’ कहते हैं।

इस प्रकार धर्म के चार प्रकारों में दान, शील, और तप ये पुण्यानुबंधी पुण्य की परंपरा का सर्जन करते हैं और क्रमशः विशुद्ध भावधर्म को पैदा करते हैं। इस कारण पुण्य में चारों प्रकार के धर्म में प्रथम स्थान दान को ही दिया गया है।

तीर्थंकर परमात्मा द्वारा कथित चार प्रकार के धर्म में प्रथम स्थान दान को ही दिया गया है।

धर्म की शुरुआत दान से होती है। दुनिया में बलवान, धनवान और वक्ता मिलना सुलभ है परंतु दाता, परोपकार की उदार वृत्ति वाले सज्जन पुरुष का मिलना बहुत ही दुर्लभ है। दान का अर्थ है देना। अपने स्वयं के पास से जो कुछ अच्छा है, हितकर है, स्वयं को जो कुछ भी अच्छा और हितकर मिला वह दूसरों को देना है यह दान है।

हमें जीना पसंद है, निर्भरता और सम्मान पसंद है, तो दूसरों को भी जीवन, अभय और सम्मान देना चाहिए। जीवन निर्वाह और प्राणरक्षा के लिए अन्न, जल, वस्त्र और मकान आदि हमारे लिए जितने जरूरी है उतने ही दूसरों जीवों को भी जीवन जीने के लिए जरूरी है।

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