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कर्म का अबाधित नियम

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एक ऐसा सनातन नियम है कि जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। इसीलिए जब भी कोई भी कार्य सिद्ध करना हो, तो उसके कारणों को खोजकर उसमें प्रवृत्ति करनी चाहिए। आम फल यदि चाहिए तो उसी का बीज बोना पड़ेगा और नीम यदि चाहिए तो उसका बीज बोना पड़ेगा। अनपढ़ किसान भी इस सिद्धांत को जानता है और इसी कारण स्वयं को जिस फसल की इच्छा होती है उसी के बीज बोता है।

डॉक्टर भी जैसा रोग होता है वैसी औषध देता है और रोग को मिटाता है। इसीलिए दर्दी भी बीमारी में डॉक्टर का आश्रय लेता है तथा उनकी सलाह अनुसार औषध का सेवन एवं पथ्य का पालन करके अपने रोग को शांत करता है। इससे सिद्ध होता है कि रोग का नाश तथा औषधादि के सेवन के बीज कार्य-कारण भाव का संबंध है।

जो अज्ञानी वैद्य रोग की चिकित्सा नहीं कर सकता अथवा रोग के शमन हेतु सच्ची औषध को नहीं जानता, वह दर्दी को विपरीत प्रकार का औषध देकर उसके रोग को बढ़ा देता है। उस वैद्य को कुवैद्य कहते हैं। ऐसे वैद्य से होनेवाले उपचार और रोगवृद्धि के बीच भी कार्य-कारण भाव संबंध ही काम करता है।

पानी में लकड़ी तैरती है और पत्थर डूबता है इसीलिए तैरने की इच्छावाला पत्थर का आश्रय नहीं लेता किंतु लकड़ी के पट्टे का आश्रय लेता है। यहां भी कार्य-कारणभाव निश्चित होता है कि पानी से जो अधिक वजनवाला पदार्थ होता है वह डूबता है और अल्प वजन वाला तिरता है।

इस तरह जगत के समस्त पदार्थों पर दृष्टिपात करें तो हमें लगता है कि सभी जगह कार्य-कारणभाव का नियमित अस्खलित रूप से लागू पड़ता है। कई बार ऐसा भी लगता है कि अमुक कार्य अकस्मात हुआ, परंतु वह भी अल्प ज्ञान की वजह से कारण दृष्टिगोचर नहीं होने से ऐसा लगता है परंतु विशाल ज्ञान के धारक महात्मा पुरुष वहाँ भी कारणों को देख सकते हैं इसीलिए उन्हें किसी भी कार्य के लिए थोड़ा भी विस्मय नहीं होता कि यह ऐसा क्यों हुआ?

जो नियम जगत के अन्य पदार्थों के लिए हैं, वह नियम आत्मा के लिए भी समझ लेना अर्थात् आत्मा भी जैसा करती है वैसा पाती है।

जो आत्मा हिंसा, चोरी, झूठ और अब्रह्म आदि अकार्य करती है, वह अपनी आत्मा में पीड़ादायी फल भोगने के बीज को बोती है तथा जो अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य वगैरह सत्कार्य करती है वे शुभ वस्तु के संयोग और उससे पैदा होनेवाले फल के बीज को बोती है।

जगत में कई मनुष्य हैं जिन्हें बिना परिश्रम किये सुख-संपत्ति मिलती है, जबकि कई ऐसे भी मिलते हैं कि जिन्हें परिश्रम करने पर भी पेटभर अन्न नहीं मिलता। कोई जन्म से ही अज्ञानी है और कोई जन्म से ही तीक्ष्ण बुद्धि के मालिक है। कोई रोगी, अपंग और निर्बल होते हैं तो कोई नीरोग, बलवान और पांच इंद्रियों के द्वारा सर्वांग संपूर्ण होते हैं। कुछ जीव जन्म लेने के साथ ही आयुष्य पूर्ण करके परलोक के पंथ पर प्रयाण करते हैं जबकि कोई दीर्घकाल के आयुष्य को निर्विघ्न रूप से पूरा करते हैं। कोई उदारदिल वाले दिखते हैं तो कोई क्षुद्र दिलवाले भी दिखते हैं।

तिर्यंच जाति के जीवो में भी ऐसा ही भेद दिखता है।
राजा के यहां रहने वाले घोड़े शरीर से हष्ट-पुष्ट दिखते हैं। उन्हें सुंदर सामग्री युक्त खान-पान मिलता है तथा उनकी पूरी सार-संभाल रखी जाती है, जबकि दूसरे अनेक घोड़ो को उनके मालिकों की ओर से पेट भर खाने को भी नहीं मिलता बल्कि उनके मालिक मार-मारकर ज्यादा काम करवाते हैं।

दूसरी भी अनेक विचित्रताएं जगत में प्रत्यक्ष दिखती है। जैसे कोई जीव एकेन्द्रिय में, कोई बेइंद्रिय में, कोई तेइंद्रिय में, कोई चार इंद्रिय में, कोई पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होता है। उसमें प्रत्येक जीव को भ…

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