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सच्चे स्वामी

अपना घर, शरीर, स्वजन और धन्य ये सभी तत्व से अपने नहीं है। परंतु पूण्य के हैं। उन सब का तात्विक मालिक पुण्य कर्म है और पुण्य कर्म के मालिक से तीर्थंकर परमात्मा है।

पूर्ण उपार्जन करने का कोई भी प्रकार तीर्थंकर नाम कर्म रूप परम प्रकृति के विपकोदेय से स्थापित धर्मतीर्थ के प्रभाव से ही प्राप्त होता है, इसलिए पुण्य मात्र के मालिक तीर्थ के स्थापक श्री तीर्थंकर परमात्मा है।

क्योंकि तीर्थंकर नामकर्म की पूण्य प्रकृति के विपकोदेय को ही वे भोगते है। उनकी निष्ठापूर्वक सेवा करने से ही जीव को अपना सच्चा घर (मोक्ष), सच्चा शरीर (आत्मा), सच्चा धन (केवल ज्ञान) और सच्चे स्वजन (उनके मार्ग पर चलने वाला चतुर्विध श्रीसंघ) की प्राप्ति होती है।

तीर्थ यह तीर्थंकर परमात्मा का परिवार है। उसकी रक्षा और वृद्धि के लिए जो कुछ प्रयत्न होता है उससे अपने धन, देव, वगैरह की रक्षा होती है। अतः सच्चे स्वामी की सेवा में ही स्वयं की रक्षा है, ऐसा सिद्ध होता है।

उनकी सच्ची सेवा अवश्य फलप्रद बनती है और अमर फल को देती है। वे हीं नित्य सेव्य है, वर्धमान परिणाम से उपास्य है। आत्मा का परिवार यानी श्री तीर्थंकर परमात्मा का तीर्थ।उसकी रक्षा आदि हेतु प्रयत्नों से स्वयं के देह आदि की रक्षा होती है। तात्पर्य यह है कि सच्चे स्वामी की सेवा में ही अपनी आत्मा की सुरक्षा है।

प्रार्थना और सुभेच्छा रूप पूण्य का फल शुभ है, वह सभी के लिए इच्छनीय नही है। किसी के लिए भी अशुभ इच्छा वह पाप है। वह किसी के लिए इच्छनीय नहीं है। इन दो विषयों पर विवेक पूर्वक विचार और आचरण करने से श्री तीर्थंकर परमात्मा के शासन की सेवा होती है।

नाशवंत पदार्थ की इच्छा यह प्रार्थना रूप नहीं किंतु वासना रूप है। जब से जीवात्मा क्षणिक वस्तु से विराम पाता है और नित्य वस्तु की ओर गति करता है तब से सच्ची प्रार्थना प्रारम्भ होती है। दिव्य प्रार्थना का यह सनातन प्रवाह श्री तीर्थंकरज परमात्मा के शाश्वत प्रभाव से बहता रहता है। साधु, संत और भक्त आत्माएं सदा निष्काम प्रार्थना करते हैं।

इस प्रार्थना के स्वीकार से ही मानव को पृथ्वी, पानी, वायु, वृक्ष, सूर्य, चंद्र और मेघ आदि समस्त प्रकृति निष्कारण सहाय कर रहे हैं, इस प्रकार का क्या अनुभव नहीं होता है?

चित्त और चेतन्य की दिव्य एकता यह आत्मा का रसायन है। इसकी प्राप्ति हेतु प्रार्थना जिनके ह्रदय में उत्पन्न होती है, वे नि:शंक, निर्भीक और निर्विकल्प बनते हैं। ऐसी दिव्य प्रार्थना का तात्कालिक फल एकांत ह्रदय शुद्धि है।

शुद्ध ह्रदय में ह्रदयेश्वर खुश होते हैं और इसके प्रभाव से राग, द्वेष, माया, कपट, विषय विकार आदि कमजोर होते हैं। उससे परमात्म-प्रीति शासन के प्रति अनन्य भक्ति पैदा होती है, सभी शुभ का स्वामित्व परमात्मा को समर्पित करने की सद्बुद्धि प्रकट होती है।

भगवदभाव यानी परमेश्वरभाव, इस भाव में वृद्धि परमेश्वर श्री अरिहंत प्रभु को भजने से आती है और उसके प्रभाव से स्वर्गापवर्ग के सुख मिलते हैं। इस तरह श्री अरिहंत ही तत्त्व से जीवमात्र की समस्त रिद्धि-सिद्धि के स्वामी निश्चित होते हैं।

श्री अरिहंत के सेवक
November 20, 2018
अनित्य का विचार
November 20, 2018

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