यह सब विचार करते हुए ऐसा लगता है कि विश्व में महासत्ता एक ही है और वह श्री तीर्थंकर परमात्मा के शासन की है।
क्योंकि विश्व के परमकल्याण की सदा उनकी भावना रही है। उन्होंने विश्व को विश्व की के यथावस्थित स्वरूप से प्रकाशित किया है और उसी के आधार पर मुक्तिमार्ग की साधना विश्व में अविच्छिन्न रूप से चल रही है।
आज्ञाराद्धा विरद्धा च, शिवाय च भवाय च।
कलिकालसर्वज्ञ भगवंत रचित श्री वितराग स्त्रोत की इस पंक्ति का अर्थ यह है कि- ‘आराधित आज्ञा का मोक्ष हेतु और विराधित आज्ञा संसार का हेतु बनाती है।’
यहां ‘आज्ञा’ शब्द का ही प्रयोग क्यो? आज्ञा यानी शाशन। आज्ञा यानी महासत्ता का नियंत्रण।
कर्म की सत्ता महान सत्ता है यह हम सभी मानते हैं, परंतु उससे भी बड़ी सत्ता रही है, यह बात हमें ललित विस्तरा ग्रंथ से जानने को मिलती है उस सत्ता को जैनशासन की महासत्ता कहो, तीर्थंकरत्व की महासत्ता कहो या विश्व की महासत्ता कहो उसमें कोई भेद नहीं है।
‘जिनेश्वर’ और ‘तीर्थंकर’ यह दोनों एक ही अर्थ के सूचक है। सिर्फ इतना समझना है कि उनका शासन विश्व पर किस प्रकार चलता है? विश्व के किसी भी शासन से यह शासन अधिक व्यवस्थित है ,अधिक कल्याणकारी है। कर्म की सत्ता के नीचे रहे जीवो को यह शाशन उसमें से मुक्त करता है, दु:ख से रहित बनाता है।
ऐसी महाशक्ति इस शासन में कहां से आई? यह वितराग पुरुषों का शासन है, इसीलिए यह शक्ति आती हो तो उसे मात्र ‘वीतराग शासन’ कहते , मात्र सर्वज्ञ का शासन कहते, मात्र कर्ममुक्तो का शासन कहते, परंतु तीर्थंकरों का शासन क्यों कहा?
शास्त्रों में इस शासन को जिनशासन अर्थात तीर्थंकर देवों का शासन कहां गया है, उसके पीछे कोई विशिष्ट हेतु होना चाहिए। वह हमें खोजना पड़ेगा। उसके लिए ललित विस्तारा ग्रंथ हमें सहायता प्रदान करेगा।