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विचार, आचार और श्रद्धा

Thoughts-Ethics-and-Faith

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आचार और विचार की सतह समान करने के लिए आदर्श को नीचे लाने की जरूरत नहीं है । आदर्श ऊंचे होंगे तो ही आचरण ऊंचे हो सकेंगे ।

आदर्श रज्जू समान है । वह ऊपर खींच सकता है , रज्जू का खुटा भले कितना ही ऊंचा हो , परंतु प्रामाणिक रूप से रज्जू का उपयोग किया जाए तो थोड़ा बहुत भी ऊपर चढ़ सकते हैं । विचार को आचार में लाने हेतु तीन कक्षा में से प्रसार होना पड़ेगा –
1 विचार की योग्यता का स्वीकार
2 विचार के प्रति प्रतिपूर्ण निश्चिंता
3 विचार में जीवंत श्रद्धा

यदि हमें आचार और विचार के बीच रही दूरी को दूर करना हो तो जो विचार हमने अपनाया हो उस पर बार-बार चिंतन मनन करना चाहिए ।

उस विचार को मन में सावधानी पूर्वक अभ्यास करने से उस पर प्रतीति होती है , अर्थात यह विचार सत्य ही हे और आदरणीय है , ऐसा संकल्प मन में दृढ़ होता है ।

उसके बाद की कक्षा श्रद्धा और निष्ठा की है
किसी एक विचार को मानने की कक्षा , श्रद्धा और निष्ठा में परिणमित होती है तब उस विचार को आचार में लाने के लिए व्यक्ति सच्चे दिल से सतत प्रयत्न करने लगता है । अपन सहज विचार करें तो बहुत बार अपने विचार और आचार के बीच का अंतर अपन को ही आश्चर्यकारी और लज्जास्पद लगेगा । यदि अपना ही आचरण अपने विचार के साथ सुसंगत ना हो तो अपने विचार की अपने को कोई कीमत नहीं है , ऐसा सिद्ध होता है ।
प्रथम कक्षा में सिर्फ

बुद्धि विचार को ग्रहण करती है । बुद्धि के साथ लगन वृत्ति और मूल्यांकन तदरूप होते हैं , तब दूसरी और तीसरी कक्षा आती है ।

जब प्रथम कक्षा में होते हैं तब से तब हम सिर्फ विचार करके संतोष मान लेते हैं , आचरण का अभाव में खटकता नहीं । दूसरी कक्षा में आचरण का अभाव असंतोष उत्पन्न करता है और आचरण तरफ प्रेरित करता है ।

तीसरी कक्षा में हमारे विचार हमें पूर्ण उत्साह से मन , वचन और तन , धन आचरण में ले जाते हैं ।

मान्यता और आचरण में भेद लगे तब आचरण यह मान्यता की परीक्षा है , ऐसा मानना चाहिए । इस मान्यता के लिए हम समय , शक्ति और धन का कितना भोग देने को तैयार है , उस पर ही हमारी श्रद्धा का माप है ।

मान्यता के लिए शरीर का बलिदान देना पड़ता हो तो देना चाहिए । यह मान्यता कि पक्की श्रद्धा को सूचित करती है । श्रद्धा के अभाव में मात्र ज्ञान अशक्त और अर्थहीन बन जाता है । श्रद्धा बिना मात्र द्रष्टि या ज्ञान उपयोगी नहीं हो सकता । विष मारता है , अग्नि जलाती है , उसी प्रकार पाप दुख देता है ज्ञान होने पर भी श्रद्धा की कमी के कारण विष और अग्नि की तरह आप से पीछे हटना नहीं होता । प्रवर्ती में दृढ़ता लाने के लिए श्रद्धा के बल की पूरी जरूरत है । ज्ञान और विवेक को सफल बनाने वाली एक श्रद्धा ही है ।

ज्ञान और विवेक जीवन में उपयोगी न बने , उस ज्ञान और विवेक पर परीपूर्ण श्रद्धा प्रकट नहीं हुई , ऐसा साबित होता है । ज्ञान और विवेक से भी श्रद्धा की अनिवार्यता कितनी ज्यादा है , वह इससे स्पष्ट होगा ।

ऐसी श्रद्धा यथार्थ वक्ता पर के विश्वास से आती है , श्रद्धालु पुरुष के संसर्ग से आती है , श्रद्धा वान पुरुषों के चरित्र श्रवण करने से आती है । श्रद्धा यानी सुदृढ़ता , एकनिष्ठता, परिपूर्ण निश्छलता! तमेव सच्चम निस्संकम जं जिनेहिम पवेइयं! वही सच्चा और शंका बिना का हे जो जिनेश्वरो ने कहा है – ऐसी श्रद्धा को धर्म जीवन का मूल मानने से विवेक व परीक्षा चली नहीं जाती । विवेक और परीक्षा बिना सच्ची श्रद्धा संभव नहीं है । श्रद्धा मनुष्य में धैर्य , साहस और बल प्रकट करती है । वस्तु मात्र की परीक्षा करो और जो सच्चा सुवर्ण सिद्ध हो , उसे ग्रहण करो ।
वंशानुगत मिली ह…

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