भक्ति का अर्थ दासता या अधीनता नहीं है परंतु एकता और अभेद की अनुभूति है। सूर्य का प्रतिबिंब दर्पण की तरह सूर्यकांत मणि में भी गिरता है। दर्पण में गिरा प्रतिबिंब मात्र प्रतिबिंब ही रहता है जबकि सूर्यकांत मणि में गिरा प्रतिबिंब दूसरों को भी प्रकाशित करता है उसी प्रकार परमात्मा के प्रति श्रद्धा, भक्ति और प्रेम को धारण करनेवाले सूर्यकांत मणि की तरह दूसरों को भी प्रेमवाले बना सकते हैं।
लक्ष्य बनाकर तीर फेंकने से लक्ष्यवेध हो सकता है। इसी तरह साधक के जीवन में वितराग तथा निर्ग्रंथता कि प्राप्ति का लक्ष्य जरूरी है। वितरागता यानी आत्मतृप्ति और निर्ग्रंथता यानी आत्मतृप्ति के लिए ‘अहं’ ‘मम’ भाव का त्याग। समभाव और निर्मम भाव का अभ्यास।
समभाव के अभ्यास के लिए मत्र्यादिभाव भाव और निर्मम भाव के अभ्यास के लिए अनित्यत्वादी भाव का चिंतन-मनन निदिद्यासन है। मत्र्यादि भावों के चिंतन से अहम भाव का नाश होता है और अनित्यत्वादी भावों के चिंतन से ममभाव का नाश होता है। अहम-ममभाव का नाश होने से जो समभाव और निर्ममभाव आते हैं वही सच्ची निर्ग्रंथता है, यही अहं-मम का ग्रंथि भेद है और वह भक्ति से होता है।