जितना जरुरी हैं उतना ही बोलना चाहीये
एक नगर में दो साधु थे – दोनों अपने अपने शिष्य परिवार के साथ अपने स्थान पर रहते थे। कई बार दोनों धर्म की बाते करने या उपदेश देने नगर के लोगो के बीच जाते 2-3 घंटो तक उपदेश देते और उनके उपदेश से नगर के लोग काफी प्रभावित होते और अपने जीवन को पवित्र बनाते। यहाँ तक की खुद राजा भी उनके उपदेश सुनता। ऐसे में कई बार दोनों साधु मार्ग में एक दूसरे से मिल जाते लेकिन बस एक दूसरे को देख के हलकी मुस्कान दे के अपने स्थान पर चले जाते।
उनके शिष्य हमेशा यह घटना देखते – उन सब ने तय किया दोनों गुरु को एक स्थान पर लाये और उनकी कुछ बात करवाये। शिष्यों ने युक्ति की – दोनों साधु को दूसरे साधु की तबियत ख़राब हैं, यह कहकर एक जगह साथ में कर दिया। गुरु देवो के पूछने पर शिष्यों ने कहा की आप दोनों हमेशा मिलते हो लेकिन कुछ बोलते नहीं – लेकिन उपदेश तो काफी लंबा देते हो तो आपस में क्यों बात नहीं करते ?
गुरुदेवो ने कहा किसने कहा हम बात नहीं करते ? हम जब मिलते हैं, तब हमारी आँखों से बात हो जाती हैं 2 घंटे का उपदेश हम 2 सेकंड में अपने दिल से एक दूजे को बता देते हैं और हमारा संतोष हमारी मुस्कान के द्वारा दिखा देते हे। शब्द जरुरी नहीं भाव जरुरी हैं – और हमारा आपसी मैत्री भाव ही हमारी पहचान हैं। शिष्यों मौन ही उत्तम साधना हैं – हम उपदेश देते हैं क्योकि वह हमारा कर्तव्य हैं, जिस नगर में रहकर हम वहा की तमाम वस्तुओ का उपयोग करते हैं उनका जीवन निर्मल बने यह प्रयत्न करना जरुरी हैं इसी लिए उन्हें उपदेश देते हैं इसके अलावा बिना जरुरी बोलना भी व्यर्थ हैं।
यह बात सुनकर सभी शिष्यों ने नियम लिया की बिना जरुरी व्यर्थ बाते नहीं करेंगे–
आप भी ऐसा बनोगे ? जीवन ऐसा बनाओ की आपके शब्द नहीं आपका मौन बोले।
व्यर्थ बोलने से मौन में आना एक परिवर्तन हैं शब्दों का।