Archivers

वैराग्य से आत्मदर्शन

विपाक की विरासता का रूप दोषों के दर्शन से उत्पन्न हुआ वैराग्य अपर वैराग्य है और आत्मा के अनुभव से उत्पन्न हुआ वैराग्य यह पर वैराग्य है।

विषयों में कितने ही दोष दिख जाए परंतु जब तक जीव को देह अध्याय है, देह में निजत्व का दर्शन है, तब तक विषयों का अध्यास भी कायम रहता है। जब तक देह में ‘अहंत्व-ममत्व’ बुद्धि का अंश है तब तक जड़ विषयों में ‘अहंत्व-ममत्व’ दूर नहीं होता।

विषयों में दोषदर्शनजनित वैराग्य विषयों के संग से दूर रहने का प्रारंभिक अभ्यास का कार्य करता है इसीलिए प्रारंभिक अभ्यास में उसकी अनिवार्य उपयोगिता है, क्योंकि विषयों के संग में रहकर आत्मानुभूति का अभ्यास अशक्य है। विषयों के विपाक काल में जो दोषों का दर्शन होता है वह विषयों के संग का त्याग करवाकर आत्मानुभूति के अभ्यास में उपकारक बनता है, इस कारण इस वैराग्य को शास्त्रकारों ने प्रथम स्थान दिया है।

परंतु विषयों का बाह्य संग छूटने पर उनकी अंतरंग आसक्ति को दूर करने हेतु आत्मानुभूति सिवाय दूसरा कोई अन्य उपाय नहीं है और आत्मानुभूतिवाले पुरुषों की भक्ति बिना आत्मानुभूति भी प्राप्त नहीं होती।

यानी पहले प्राथमिक वैराग्य, फिर आत्मानुभूति करने वाले पुरुषों के प्रति भक्ति और फिर स्व आत्मानुभूति यह क्रम है।

आत्मानुभूति के बाद प्रादुर्भाव होती विषयों की विरक्ति यह तात्त्विक विरक्ति है क्योंकि उस समय विषयों की विजतीयता प्रत्यक्ष प्रतीति होती है।

भक्ति, वैराग्य और ज्ञान
November 20, 2018
देव गुरु की भक्ति
November 20, 2018

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Archivers