जिस प्रकार धन से धन बढ़ता है, उसी प्रकार पुण्य से पुण्य बढ़ता है। पुण्य से प्राप्त मन-वचन-काया की शक्ति का या धन-धन्यादि बाह्य पदार्थों का दूसरों के हित के लिए उपयोग करके उसका हर्ष-आनंद मानने से पुण्य का भंडार अखूट बनता है। जबकि अपनी सामग्री का स्वयं ही आसक्ति पूर्वक भोग या उपभोग करके उसका आनंद ले तो भरा हुआ पुण्य का भंडार भी खाली हो जाता है। दूसरों को देना पुण्य है और स्वयं आसक्ति पूर्वक भोग करना पाप है। देने से उदारता गुण प्रकट होता है। भोगने से आसक्ति का पोषण होता है। आसक्ति के पाप में से छूटने योग्य पुण्य सर्जन करने के लिए ही दूसरों को देना है किंतु भोगोपभोग की अधिक सुंदर सामग्री मिले उसके लिए नहीं।
किसी भी वस्तु का दान मुझे अच्छा मिले या ज्यादा मिले ऐसे आशय से नहीं परंतु मुझे जो मिला है वह परोपकारी और कृतज्ञता के स्वामी ऐसे देव-गुरु की कृपा से ही मिला है इसीलिए देव-गुरु की आज्ञा अनुसार ही परार्थ के लिए देना यह मेरा कर्तव्य है, ऐसी उदार भावना से ही करना है।
पुण्य से मिली सामग्री का पुण्य के मार्ग पर उपयोग करने से पुण्य की वृद्धि होती है। दान आदि परोपकार में दान लेनेवाले मोह मूढ़ जीवो की दृष्टि पुद्गल तरफ हो सकती है, परंतु दाता की दृष्टि तो सामनेवाले जीव के ‘जीव तत्त्व’ पर ही होनी चाहिए। सामने वाले जीव की पीड़ा-प्रतिकूलता किस प्रकार दूर हो, किस प्रकार उसे शाता और सांत्वना मिले, ऐसी अनुकंपा करुणा भावना से अन्न पुण्य आदि पुण्य कार्य करने हेतु दाता को तैयार होना चाहिए।
दान में तो दाता अपने आप को सदभाग्यवान समझकर, मात्र पुण्यबुद्धि से दान करता है, इससे महान पुण्य की अभिवृद्धि होती है, परंतु दान लेनेवाला जीव भी दाता के दान आदि उत्तम गुणों की सच्ची प्रशंसा अनुमोदना करके योग्यता अनुसार पुण्य का भागी बनता है।