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प्रभु स्मरण

भगवान ज्ञान गुण और करुणा गुण की सर्वत्र उपस्थित है। करुणा से मोहक्षय और मोहक्षय से केवल ज्ञान होता है। अतः केवलज्ञान करुणा युक्त ज्ञान है। उस ज्ञान से प्रभु प्रतिक्षण सभी को देख रहे हैं। उनकी करुणा, पाप और दु:ख में से जीवो को निकालने हेतु उमड़ रही है।

सबसे अधिक प्रेम और ज्ञान द्वारा विश्व को देख रहे भगवान को देखने के लिए मोह-ममता के अधीन ऐसे संसारी जीव को एक क्षण भी समय नहीं मिलता, यह मोहमाया का प्रभाव है।

जिसे स्वयं पर प्रेम नहीं है और है तो स्वार्थमय है, उसे देखने के लिए जीव के पास चार आंख है और जिन्हें हम सभी पर अपार प्रेम है जो हम सभी को प्रतिक्षण देख रहे हैं ऐसे प्रभु की और उपेक्षा बुद्धि है, अनादर भाव है, प्रमाद और अरुचि है तो जीव का उद्धार कैसे होगा?

प्रभु को पल भर के लिए भी जो नहीं भूलता, उसी का उद्धार शक्य है। समस्त विश्व को भूल जाए परन्तु प्रभु को नहीं भूले, उसका कल्याण निश्चित है। प्रभु को भूलकर समस्त विश्व का स्मरण करें तो भी वह निष्फल है, व्यर्थ है,। प्रभु का स्मरण संक्लेश को शांत करता है इसीलिए उपयोगि, उपकारी और सार्थक है। इस बात को गंभीरता से विचार कर प्रभु को जीवन में सर्वोच्च स्थान एवं मान देना चाहिए।

संयोग भले प्रतिकूल हो फिर भी यदि प्रभु मेरे साथ है, मेरे पास है, एकदम नजदीक है, श्वास से भी अधिक समीप है ऐसा सुदृढ़ अनुभव कर सके तो संयोगो की रेखा बदल जाएगी। ऐसा अनुभव तब शक्य है कि जब दिन-रात प्रभु के स्मरण में लयलीन बनेंगे, इसमें थकावट या कंटाला नहीं आता। कंटाला लगे तो मानना कि हमने प्रभु को भजने की योग्यता अभी तक हासिल नहीं की। भव के अतिदारुण भ्रमण में प्रभु का सतत स्मरण यह तो प्रकाशमान दीपक है ऐसा दीपक जिसे काल का पवन भी बुझा नहीं सकता।

मन प्रभु के साथ मैत्री करता है तो सुखी बनता है और अलग होता है तो दु:खी बनता है। प्रभु के नाम में श्रद्धा न होना यह बड़े से बड़ा पाप है। प्रभु का स्मरण करनेवाले के जीवन में प्रभुता प्रकट होती है, वह पापभाव से मुक्त हो जाता है। प्रभु के चरण में मन का निवास करना यह भी एक प्रकार का उपवास है। उप यानी समीप में, वास यानी रहना।

अर्थात् मन का प्रभु के समीप निवास करना, रहना यह उपवास है। आत्मा का धर्म, प्रभु के सन्मुख होना है। जिनका आचरण मंगलमय है, उनका मनन-चिंतन करना वह मंगलाचरण है। मंगलमय आचरण है, उसका ध्यान करने से, वंदन करने से, स्मरण करने से मंगल होता है।

प्रभु के चिंतन-ध्यान से प्रभु की शक्ति मनुष्य में आती है। क्रिया में अमंगलता काम से आती है। निष्काम का चिंतन करने से मन निष्काम बनता है। भगवान पूर्ण निष्काम है अतः उनके ध्यान से अपनी आत्मा निष्काम बनती है। संसार के चिंतन से बिगड़ा हुआ मन जब तक ईश्वरचिंतन नहीं करेगा तब तक नहीं सुधरेगा।

स्मरण-मनन, ध्यान करने से जीव-शिव का मिलन होता है। ध्यान बिना ब्रह्म संबंध नहीं होता। ध्यान हेतु शुरुआत स्मरण से होती है। प्रभु का विस्मरण अति बुरा लगे तब ध्यान की भूमिका तैयार होती है।

एकांत में शांत चित्त से यदि इतना समझने का प्रयत्न किया जाए की मेरे मन मे कौन है? किसका ध्यान है? तो तुरंत पता लग जाएगा। व्यक्ति जिस वस्तु का ग्राहक होता है उसी प्रकार का उसका जीवन बनता है।

प्रभु का जीवन मंगलमय है, ऐसे जीवन की भूख मन में लगाने का प्रारंभ प्रभुस्मरण से होता है। प्रकृष्ट भाव में रमणता करने से जीवन मंगलमय बनता है। प्रकृष्ट भाव यानी सर्व मंगलकारी भाव, सभी जीवो का परम कल्याणभाव, इस भाव को भावदया भी कहते हैं, परम वात्सल्य भी कहते हैं अथवा विशुध्द स्नेह परिणाम भी कहते हैं। पूर्ण (प्रभु) के स्मरण, मनन और ध्यान के बल से ही अपूर्ण का संग छूटता है।

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