प्रभु के नाम से पाप का नाश, प्रभु के रूप से पुण्य का प्रकाश, प्रभु के द्रव्य से आत्मबोध और प्रभु के भाव से भवजल पार होता है।
श्री अरिहंत परमात्मा का नाम, आकृति, द्रव्य और भाव इन चारों निक्षेपों की त्रिविध-त्रिकरण योग से की गई भक्ति, त्रिभुवन हितकर शक्ति रूप में प्रकट होकर स्वधर्म निभाती है।
अपने स्वयं के नाम, आकृति, रूप वगैरह संसार में परिभ्रमण करवाते हैं। उनसे निरमुक्त श्री अरिहंत प्रभु के नाम आदि चारों निक्षेपो की अनन्य भावपूर्वक की भक्ति, शरणागति आदि करते हैं। इसीलिए प्रभु की भक्ति मुक्ति की दूती कहीं गई है।
श्रद्धा और विश्वास पूर्वक उत्तम मंत्रों का जाप करने वाले हमेशा सुरक्षित है। परमात्मा के नाम मंत्र द्वारा ईश्वर का प्रसाद और पूर्णता की प्राप्ति होती है। परमात्मा का नाम जीव को सभी तकलीफों से बचाता है।
धर्म मात्र का ध्येय आत्मज्ञान है और वह परमात्मा के ध्यान मात्र से सिद्ध होता है।
नाम मंत्र का रटन हृदय के मैल को साफ करता है और दूसरी और तन, मन और धन की सभी आधी, व्याधि और उपाधि दूर कर देता है। शरीर की व्याधि यदि असाध्य हो तो न भी दूर हो परंतु मन की शांति और व्याधि को समताभाव से सहन करने की शक्ति तो अवश्य मिलती है। वह किस प्रकार मिलती है? यह प्रश्न ही गलत है। क्योंकि ऐसा उसका स्वभाव है और स्वभाव हमेशा तर्क का विषय नहीं होता।
कोई प्रश्न और उनके उत्तर बुद्धि से दे सके, ऐसे नहीं होते। ह्रदय की बात ह्रदय ही समझ सकता है, बुद्धि वहाँ काम नहीं कर सकती।
ईश्वर को नहीं मानने वाले का स्वयं का अहं ही ईश्वर का स्थान ले लेता है। सर्व समर्थवान का शरण लिए बिना अहं कभी नष्ट नहीं होता।
ईश्वर सर्व समर्थ है, अचिंत्यशक्ति युक्त है। सर्वव्यापी और निराकार है, उन्हें जन्म नहीं है, मरण नहीं है, किसी ने उनका निर्माण किया नहीं, वे तो है, हैं और है ही।
मूर्ति को पूजनेवाला मूर्ति में सर्वव्यापी ईश्वर की ही पूजा करता है। ईश्वर सर्वव्यापी होने से सभी जगह है और सभी में है। तत्त्व से वह एक शक्ति है शुद्ध चैतन्य है।
बिजली एक शक्ति है, परंतु उसका उपयोग सभी को मिलता नहीं उसी प्रकार ईश्वर और उनके नाम का लाभ सभी को नहीं किंतु सदाचारी, श्रद्धावान और भक्त-ह्रदय को ही मिलता है।
भगवान का नाम अनुभव की प्रसादी है। उसे पोपट स्वभाव से नहीं परंतु मानव स्वभाव से लेना चाहिए।
प्रभु अनादि अनंत, निरंजन निराकार है फिर भी उनका नाम रक्षा करता है। ईश्वर से जो भय रखता है उसे अन्य किसी का भय नहीं रहता।
प्राणी मात्र में रहकर सभी व्याधियों को हरनेवाला जो तत्त्व है उसे ही ईश्वर के नाम से कहा जाता है। भीतर से जब प्रभु का नाम लिया जाता है तब वह अपनी शक्ति का परिचय अर्थात प्रभाव अवश्य बताता है।
आत्मा के भीतर से यानी नाभि में से, भीतर से भी भीतर से, जिसमें व्यक्ति की समग्रता का पूर्णत: समारोप होता है, एक अंश भी उसमें बाकी नहीं रहता। ऐसा जाप अवश्य शीघ्र फल देता है।