शरीर वाहन के स्थान पर है, बाहिर आत्मा पशु के स्थान पर और अंतरात्मा पर्षदा के स्थान पर हैं। देह तरफ दृष्टि जीव को पशु बनाती है और आत्मा तरफ दृष्टि जीव को दिव्य बनाती है। आत्मा मन, वाणी और कर्म से भिन्न है, यह तीन किले भी कहलाते हैं, इनको जीतने पर भगवान दिखते हैं।
राग, द्वेष और मोह को भी तीन किले कह सकते हैं।
राग की अभिव्यक्ति मन से होती है, द्वेष की वचन से और मोह की काया से होती है। अशुभ क्रिया द्वारा मोह का पोषण होता है। अशुभ वचन द्वारा द्वेष पुष्ट होता है और अशुभ मन द्वारा राग पुष्ट होता है। इन तीनों को जीतनेवाला ही प्रभु के दर्शन पा सकता है।
पर्युषण पर्व में कर्म राजा के 3 किलो को जीतते हैं, उससे परमात्म-दर्शन सुलभ होता है। पर्वाधिराज की आराधना से नौ प्रकार के पुण्य का पोषण होता है और मिथ्यात्वादी 18 पापों का शोषण होता है। बंध के हेतुओं का त्याग होता है और सम्यक्तवादी मोक्ष के हेतुओं का सेवन होता है।
प्रभुजी की पूजा करने से 8 कर्मों का क्षय होता है। चैत्यवन्दन स्तुति आदि द्वारा ज्ञानावरणीय, दर्शन आदि द्वारा दर्शनावरणीय, योग मुद्रा द्वारा अंतराय, जीवो की यतना द्वारा अशाता वेदनीय, प्रभु नाम के ग्रहण द्वारा नाम कर्म, प्रभुजी की वीतराग की भावना से मोहनिया कर्म, प्रभु को वन्दन करने द्वारा नीच गोत्र का और प्रभु की अक्षय स्थिति के भावन द्वारा आयुष्य कर्म का क्षय होता है।
अन्नदान से अहिंसा और सत्य, जलदान से अचौर्य और ब्रह्मचर्य, वस्त्रदान से अपरिग्रह क्षमा, आसनदान से नम्रता और सरलता, शयनदान से संतोष और वैराग्य, मनदान से और अद्वेष और अकलह, वचन दान से अनभ्याख्यान और अपैशुन्य, काय दान से समता और अपर-परिवाद एवं नमस्कार के दान से अमाया मृषावाद और अमिथ्यात्व की पुष्टि होती है।
हिंसा और असत्य का प्रतिकार अन्नदान द्वारा, चोरी और अब्रह्म का प्रतिकार जलदान द्वारा, परिग्रह और क्रोध का प्रतिकार वस्त्रदान द्वारा, मान और माया का प्रतिकार आसन द्वारा, लोभ और राग का प्रतिकार शयनदान द्वारा, द्वेष और कलह का प्रतिकार शुभ मन के दान द्वारा होता है।
शुभ भाव के द्वारा किए गए दान में 18 प्रकार के पापों को नष्ट करने की शक्ति है। चिरकाल का तप, अधिक श्रुत और उत्कृष्ट चारित्र भी भक्ति भाव शून्य हो तो अहंकार का पोषक बनकर अधोगति का सर्जन करता है। पाप के शोषण के लिए यह सभी दान करने से आत्मा भवसागर पार उतरती है।