अहिंसा पालन के लिए क्रोध निग्रह की आवश्यकता है।
संयम पालन के लिए इंद्रियों के निग्रह की आवश्यकता है।
तप की आराधना के लिए इच्छानिरोध की जरूरत है।
सभी जीवो के साथ औचित्यभरा वर्तन अहिंसा है।
स्वयं की आत्मा के साथ औचित्यभरा वर्तन संयम है।
परमात्मा के साथ औचित्य भरा वर्तन वह तप है।
समापत्ति यह ध्यानजन्य स्पर्शना है। अनंत ज्ञान-दर्शन-चरित्रमय परमात्म स्वरुप के साथ आत्मा के शुद्ध स्वरूप की अत्यंत समानता है। इससे मुझमे वह स्वरूप है। वह ही मैं हूं, इस प्रकार का अभेद प्रणीधान वह समापत्ति है। यह समापत्ति योगीजनों की माता है और मोक्ष रूप कार्य की जनेता है।
वितरागत्वादी सभी गुणों से ‘मैं यही हूं’ इस प्रकार स्व आत्मा में परमात्मा के साथ परम समरसापत्ति, उत्कृष्ट समत्व भाव की स्थापना यह तात्त्विक प्रतिष्ठा है।
अहिंसा शब्द नकारात्मक है। अहिंसक-भाव नकारात्मक नही है, हिंसा शब्द स्वभाव के विरोध का सूचक है। हिंसा की निषेधात्मक का निषेध अहिंसा है, अतः अहिंसा शब्द में विधायकता का संकेत है, क्योंकि निषेध के निषेध से विधायकता फलित होती है।
अहिंसा शब्द के कलेवर के पीछे प्रेम की विधायकता का प्राण है। प्राण बिना का कलेवर नि:सार है। हिंसा यह प्रेम है। अप्रेम का निषेध वह प्रेम या अहिंसा है। प्रेम सर्जन है, अप्रेम यह विध्वंसन है, उसका विरोधी प्रेम यह सृजन का स्त्रोत है।
हिंसा नहीं करना, यह अहिंसा अथवा शत्रुता न होना यही प्रेम, ऐसा नहीं है। अहिंसा की उपलब्धि केवल हिंसानिषेध और हिंसात्याग में परिणत बने तो उसका परिणाम बुरा मिलता है।
निषेध की दृष्टि जीवन का विस्तार नहीं परंतु संकोच करती है। संकोच बंधन है और विस्तार मुक्ति है।
हिंसा संकोच और स्वार्थवृत्ति की उपज है। वह अहिंसा द्वारा दूर होती है हिंसा द्वेष की अभिव्यक्ति स्वरूप है। उसका निषेध होकर अहिंसा प्रेम स्वरूप बनती है।
प्रेम और परमात्मा अभिन्न है। परमात्मा से अभिन्न ऐसे प्रेम का स्वरूप अहिंसा है। अतः अहिंसा और समापत्ति दोनों एक ही बन जाती है, समापत्ति में परमात्मा के साथ अभेद का प्रणिधन है, अहिंसा भी उसी अर्थ की सिद्धि करती है।
जीव मात्र के साथ द्वेष का अभाव और प्रेम का सद्भाव अहिंसा है। जीव मात्र के साथ अभेद का अनुसंधान समापत्ति है।
अहिंसा साक्षात परमात्म-स्वरुप है, प्रेम और परमात्मा एक ही है। अभेद का प्रणिधान और परमात्मा का ध्यान दोनों अभिन्न है।