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श्री अरिहंत का स्वरूप

षट्खंडागम के पांचवें वर्गणा खंड में, चौथे अनुयोग द्वार में26 वे सूत्र की व्याख्या में ध्येय अरिहंत स्वरूप है। उसमें कुछ विशेषण निम्नानुसार है-
राग रहित होने पर भी सेवकजन के लिए कल्पवृक्षतुल्य है।

द्वेषरहित होने पर भी स्व-समय-आत्मधर्म से विमुख जीवो के लिए कृतांत समान अरिहंत भगवान को नमस्कार हो।

दर्पण में संक्रान्त सर्व लक्षणों से संपूर्ण ऐसे मनुष्य की छाया जैसे आकारवाली होने पर भी सर्व मनुष्य के स्वभाव से रहित, श्री अरिहंत के आत्मद्रव्य पर किसी का भी प्रभाव नहीं पड़ता। क्योंकि वे राग-द्वेष और मोह से परे है। अंतिम विशेषणो से इतना निश्चित कर सकते हैं कि वितराग अवस्था के पहले आत्मा मनुष्य लोग में भावों के असर के अधीन होती है। वितराग, लोक प्रभाव के असर से उत्तीर्ण हैं।

34 अतिशय सहित, 35 वाणी गुणों से युक्त, 18 दोषो से अदूषित, 8 प्रातिहार्य सहित, तीन गढ़ युक्त समवसरण में विराजमान, 12 पर्षदा से सुशोभित। अनंतबल, अंनतगुण, अनंतज्ञान, पुरुषों में उत्तम जिनेंद्र का नाम वह नाम अरिहंत।

तीन भुवन में वीतराग परमात्मा के बिंब वह स्थापना अरिहंत।
तीर्थंकर पदवी के लिए योग्य जीव वह द्रव्य अरिहंत।
समंदर वगैरह विराजमान वह अरिहंत।

सुवर्ण रत्नमय सिंहासन पर विराजित होकर चार मुख से देशना देनेवाले, त्रिभुवन की लक्ष्मी सहित एवं विश्वाधीश, अंतरंग वैरी रहित एवं परम जगदीश। जो आकाश की तरह निरालंब, पृथ्वी की तरह सर्वंसह, सूर्य की तरह तप-तेज, मेरु की तरह निष्प्रकम्प, समुद्र की तरह गंभीर, चंद्र की तरह सौम्य, सिंह की तरह अक्षोभ्य, चंदन की तरह शीतल, वायु की तरह अप्रतिबद्ध, भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त, तीन जगत के लिए वंदनीय है।

महामुनीश्वरो के लिए भी ध्यातव्य है, केवलज्ञान द्वारा त्रिभुवन दिवाकर है। ऐसे अरिहंत अनन्त हुए, हो रहे है और होंगे। उनका ध्यान पांच वर्ण युक्त धरे।

भाव अरिहंत का स्वरूप
November 20, 2018
अनन्य उपकारी श्री तीर्थंकर भगवंत
November 20, 2018

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