जो मनुष्य आत्मा के आधार पर जीवन जीने का प्रयास करता हो, उसके ध्यान में सृष्टि की अतथ्यता ,असारता, क्षणभंगुरता स्थिर होनी चाहिए।उसके चित्त में सृष्टि के प्रति वैराग्य के ही विचार निरंतर चलते रहते हैं। फिर भले ही प्रारब्ध के संबंध से आए हुए उचित कार्यों को उसे करना पड़ता हो फिर भी आत्मा के आगे देह की समग्र सृष्टि की कीमत उसके लिए शुन्य होती है। सृष्टि में चाहे कैसे भी या कितने भी परिवर्तन हो उनका उसके दिल पर जरा भी असर नहीं होता, अपनी शांति को वह कभी नहीं गंवाता ।
वह स्वयं हमेशा यही विचार करता है कि मेरा स्वरूप क्या है?देह या आत्मा? यदि मेरा स्वरूप आत्मा है तो मैं शांति किस प्रकार गंवाऊँ क्योंकि शांति तो मेरा स्वरूप है। अग्नि का स्वरूप ही उष्णता और प्रकाश है ।अग्नि उष्णता और प्रकाश को गंवा देती है तो फिर अग्नि रहीं कहां? क्योंकि उष्णता और प्रकाश अग्नि का स्वरूप है।
उसी प्रकार यदि आत्मा का स्वरूप शांति है तो फिर यदि मैं उसे गंवा दूं तो कैसे चलेगा? क्योंकि शांति मेरा स्वरूप है। अपने स्वरुप को गंवाना, अपने आपको गंवा देने जैसा है।’मैं स्वयं खो गया हूं’ ऐसा अनुभव हमें कभी नहीं होता ही नहीं। हमेशा हमें अपने अस्तित्व का अखंड अनुभव होता है। निंद्रा में हम जिसे ‘में’ रूप से संबोधन करते हैं वह तो जागृत ही होता है। क्योंकि चाहे कितनी ही गाढ़ निद्रा हो, पूरी होते ही हम कहते हैं कि आज मुझे गाढ़ नींद आई थी। यदि हम यदि हम उस समय जागृत न होते तो फिर गाढ़ नींद का अनुभव किसने किया?
इससे सिद्ध होता है कि गाढ़ नींद में भी साक्षी रूप में ‘मैं’ था। ऐसा ‘में’ यानी आत्मा वह अशांत हो ऐसा पदार्थ ही कहां है? आत्मा के आधार पर जीने वाले मनुष्य के ह्रदय में ऐसे विचार एकदम दृढ़ होते हैं। उससे वह हमेशा शांति का अनुभव करता है । हम आत्मा के आधार पर जीने का प्रयास निश्चय पूर्वक करेंगे तो हमें भी शांति का अनुभव होगा। इसमें थोड़ी सी भी शंका नहीं है।
ऐसी शांति का अखंड अनुभव करने के लिए विचार और आचार के बीच हमेशा सुमेल रखने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। विचार और आचार के बीच अंतर होने से शांति का अखंड अनुभव नहीं हो सकता। बहुत से लोगों के मन में विचार ऊँचे आते हैं, परंतु ऊंचे विचारों के साथ अनुसंधान रखनेवाला आचरण उनके जीवन में नहीं होता। इसलिए परिस्थिति जब तक अनुकूल हो तब तक उनके जीवन में शांति का भंग नहीं दिखता परंतु प्रतिकूल परिस्थिति आते ही उनकी शांति भंग हो जाती है। इसलिए जीवन में सबसे महत्व की बात विचार के साथ आचारों का अनुसंधान है।
अहिंसा, सत्य, संयम,तप और दूसरे आचार जीवन में पात्रता को विकसित करते हैं। सदविचार करने के साथ उसके परिणाम से प्राप्त होने वाली अखंड शांति के अधिकारी बनने के लिए ब्रम्हाचर्य आदि सद्गुणों के अखंड पालन की आवश्यकता है।
वैराग्य बिना जिस प्रकार सृष्टि संबंधी आसक्ति नहीं जाती उसी प्रकार ब्रह्मचर्य आदि सदाचारों के अखंड पालन बिना चित्त में वैराग्य की स्थिति भी दीर्घकाल तक टिक नहीं पाती। और वह न रहे तब तक प्रतिकूल परिस्थिति में भी अखंड शांति टिकाने का बल नहीं मिल पाता।
अखंड शांति के अर्थी को आचार और विचार के बीच अनुसंधान कायम रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। इस तरह आत्मा को लक्ष्य में रखकर जीनेवाली आत्मा ही सच्चे स्वरुप को प्राप्त कर सकती है।
समस्त दु:खों का मूल है आत्म अज्ञान और समस्त सुखों का मूल है आत्मज्ञान ।आत्म अज्ञान को नष्ट करने के लिए और आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए जिनमूर्ति और जिआगम का अस्तित्व है। आगम से आत्म अज्ञान नष्ट होता है और जिन प्रतिमा से आत्मज्ञान प्राप्त होता है। आगम के उपदेशक श्री तीर्थंकर ,गणधर है, इसलिए तीर्थंकर ,गणधरों का अस्तित्व भी आत्मज्ञान के लिए है। श्री तीर्थंकर गणधरो की उत्पत्ति सिद्धत्व का अस्तित्व है। सिद्ध गति का मार्ग बदलाने के लिए और सिद्धगति पाने के लिए उसका प्रकाश है। इसीलिए परंपरा से सिद्ध परमात्मा ही सभी के उपकारी हैं। इन सभी का हेतू आत्मज्ञान है। आत्मज्ञान प्राप्ति के विविध उपायों और विविध कारणों का संग्रह यह जैन शासन है। उसमें मूर्ति और मंत्र मुख्य है। क्योंकि इन दोनों में आत्मज्ञानी महापुरुषों का पूजन-स्मरण, ध्यान और उसके द्वारा आत्मज्ञान की सिध्दि रही हुई है।
आगम आप्त वचन रूप है। वह मूर्ति और मंत्र दोनों के महत्व को बताता है और चतुर्विध श्री संघ में उपदेश द्वारा अखंड धारा के रूप से प्रवाहित रहता है ।
पदस्थ ध्यान का मूल,मंत्र है। रूपस्थ ध्यान का मूल, मूर्ति है।
मंत्र जीभ से जपते हैं।
मूर्ति चक्षु से दिखती है।
जिभ के द्वारा मंत्रजाप से और चक्षु द्वारा मूर्ति के दर्शन से योग के आठो अगों का सेवन होता है। प्रथम के पांच अंग ब्राह्या साधन है, बाद के तीन अंग अंतरंग साधन है। बाहय साधन रूप बाहा संयम यह इंद्रियों का और परंपरा से प्राण और देह का संयम है।