Archivers

मोक्षमार्ग

विषय – विरक्ति, कषायत्याग और आत्मराग यही मोक्षमार्ग है ।ये क्रियाए साथ में होनी चाहिए। इंद्रियों के विषय और चित्त की वृत्तियों का अधिष्ठान एक ब्रह्मा है।

इस विचार पर मन को स्थिर करने से इस मार्ग पर सफलता से आगे बढ़ सकते हैं ।

ब्रह्मा ही विश्व का निर्मित और उपादान कारण है। समग्र विश्व में व्यापक रूप से रही एकता का सतत विचार करते रहना चाहिए। चित्त को ब्रम्हारूप परमसत्य पर एकाग्र करें । एकाग्र करने से तृष्णा के बंधन से आसानी से मुक्ति मिल सकती है ।

आत्मा के स्वरूप को मन में सुदृढ़ किए बिना मन में कभी शांति नहीं मिल सकती । दान, पूजन, तप या तीर्थों की उपासना से चित्तशुध्दि जरूर होती है लेकिन परमपुरुषार्थ की सिद्धि आत्मज्ञान से होती है। भोगो में अनासक्ति यह चित्त की परिपक्व अवस्था का चिन्ह है।

आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए वैराग्यवान, विशाल दृष्टि वाले महात्माओं का समागम सहायक बनता है।सर्वप्रथम देश के आचारों के अनुसार न्यायसंपन्न धन का संपादन, उस धन का सदुपयोग, सत्पुरुषों की सेवा, उनके समागम से ज्ञान प्राप्त कर जीवन को उध्वर्गामी बनाने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए  आत्मा का विचार और स्व स्वरूप की प्राप्ति हेतु भारपूर्वक उद्यम करना चाहिए।

इस संसार के पदार्थों में अनुराग ही अशांति आदि का कारण है।अखंड, निराकार, निर्विकार, आत्मतत्व के साथ अनुसंधान किए बिना इस संसारचक्र में परम शांति मिलना अश्कय है ।

दृश्यों से मुक्त जो चैतन्य है वही पूर्ण आत्मा है। यही सकल ज्ञान का सार है और आधार है। इस परम सत्य को मन में स्थिर करते हुए आत्मा का अनुसंधान रखने का प्रयत्न अंनतपद रूप परमात्मा को प्राप्त करवाएंगा।

आप  चेतन्य है, मैं भी चैतन्य हूं, सभी प्राणी भी चैतन्य है । यदि आपकी बुद्धि चतुर होगी तो इतने मात्र शब्दों से ही समस्त उपदेशों का सार ग्रहण हो जाएगा और सर्व  सारभूत आत्ममय बन जाओगे और आत्मानुभव हो सकेगा ।

जिस प्रकार समस्त जल समुद्र में अवतरित होता है उसी प्रकार सभी प्रमाण अनुभव रूपी मुख्य प्रमाण में अवतरित होते हैं। अनुभव प्रमाण को प्रत्यक्ष तत्व कहते हैं। वृत्तिरूप उपाधि के कारण वह संवित कहलाता है और ‘मैं’ ऐसी प्रतीति के कारण ‘प्रमाता’ कहलाता हूं। विषय के संबंध में पदार्थ कहलाता है । यही परमतत्व सच्चिदानंद ,जगत रूप से विस्फुरित होता है। अविधा से वह भोक्ता और भोग्य में विभक्त हुआ है ।

आत्मानुभूति बिना नित्यानंद और परमानंद की प्राप्ति शक्य नहीं है।  ज्ञान से समादी गुण होते हैं शुभ होते हैं और समाधि गुण शोभते है और शमादि  गुणो से ज्ञान शोभता है। ज्ञान से चारित्र की और चारित्र से ज्ञान की वृद्धि होती है ।

यह विद्यमान जगत के आकार रूप से एक शाश्वत तत्व है, वह सत् स्वरूप है ,चित् स्वरूप है, आनंद स्वरूप है।  यह सभी रूपों से परिपूर्ण है ।

वर्तमान की दुनिया भौतिक और मानसिक समृद्धि की प्राप्ति में ही कृतकृत्यता मानती है। मन से दूर जाने में, अहंबुद्धि को शांत करने में आस्था नहीं है ।

विश्व का परम सत्य तत्व आत्मतत्व ही है। एक आत्मा ही शाश्वत है, अन्य सभी पदार्थ विनाशी है।इस वास्तविकता को मन में स्थिर करने में और उसके अनुसार जीवन का निर्माण करने में आज के लोगों में ज्यादा रस देखने में नहीं आता।

आत्म तत्व की समझ हो तो केवल्यपद की प्राप्ति के लिए ज्यादा परिश्रम करना नहीं पड़ता। मन मे से द्वेत को मूल से ही उखाड़ने से परम पद की प्राप्ति बहुत सुगम बन जाती है। शम, संतोष, सुविचार और सतसमागम इस शुभ कार्य में सहायक है।

मोक्ष ज्ञान से मिलता है ,कर्म और योग उसके सहायक है। मन को शांत करके निराकार निर्विकार आत्मा का अनुभव यह मोक्ष पदार्थ है। विध्दान सत वस्तु को  ऋत,आत्मा, परब्रम्हा वगैरह नाम देते हैं ।

जगत ब्रह्या से भीन्न नहीं है । दृष्टा पर दृश्य का आधिपत्य वह संसार और दृश्य पर दृष्टा का आधिपत्य वह मुक्ति है। दृश्य पर आधिपत्य दीर्घकाल के यथार्थ चिंतन से फलीभूत बनता है। जिस प्रकार पदार्थ में रस और पुष्पो में सुगंध रहती है उसी प्रकार दृष्टा में दृश्य रहता है। राग द्वेष ममत्व बिना देखना यह दृष्टा का पारमार्थिक स्वभाव है।

जगत में सभी पदार्थ अस्थिर नाशवंत है। परमात्मा की सत्ता से ही वे सत्तावान दिखते हैं। परमात्मा शुद्ध ज्ञान स्वरूप अखंड शक्तिमय है,निर्विकार है।

अविघा का संपूर्ण विनाश होते ही यह सत्य ह्रदयगत होता है। अविद्या का विनाश नित्य विघमान ऐसी आत्मा के सतत उपयोग में रहने के अभ्यास से होता है। इस प्रकार के अभ्यास में रूचि और प्रीति परमात्मा के स्तवन, कीर्तन, चिंतन, मनन ,और ध्यान से उत्पन्न होती है । उसके पश्चात अविघा बहुत भार रूप लगती है।

आत्म साक्षात्कार
November 21, 2018
विचार और विवेक
November 21, 2018

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Archivers