उत्तम फल का बीज उत्तम चाहिए, अधम नहीं
कुकर्म का फल कालांतर में भी अच्छा नहीं आता।
कर्म के इस अबाधित नियम का भंग करनेवाला जीवन में दु:खी होता है।
इस नियम के पालन में ही जीवन की आंतर बाह्य शांति और उन्नति का आधार है।
जीव कर्म के साथ नहीं परंतु कर्मफल के साथ लड़ रहा है।
हम प्रत्येक जन्म में अशुभ कर्म फल न मिले और शुभ कर्म का ही फल मिले इसके लिए सतत प्रयत्न करने कर रहे हैं। अशुभ फल का कारण अशुभ कर्म है, उसे नष्ट करने का प्रयास किया जाए तो अपने आप अशुभ फल से मुक्त बन सकते हैं।
कर्म का एक अर्थ ‘क्रिया’ भी है। हाथ, पांव आदि अवयव और इंद्रिय तथा मन प्रतिपल क्रिया कर रहे हैं। जीवन में प्रत्येक श्वास कर्म और क्रिया से व्याप्त है। एक क्षण भी विराम लिए बिना क्रिया कर रहे हैं। शरीर की नाड़ी और सूक्ष्म प्राणों की हलन-चलन सतत चालू है। क्रियाओं के निरंतर प्रवाही स्रोतों को कोई भी शक्ति रोक नहीं सकती और जब तक इन क्रियाओं के साथ संबंध है तब तक आत्मा को कर्म के बंधन में रहना ही पड़ता है।
आत्मा को बंधन में रखने वाले बाह्य पदार्थ नहीं है परंतु रागद्वेष के विकल्प है। हम वन में हो या भवन में, मन को कमलपत्र की तरह ‘पद्मपत्रमिवाम्भसा’ अलिप्त रखना चाहिए। उनके फल का उपयोग रोका नहीं जा सकता। उनसे भाग जाने की चेष्टा व्यर्थ है। जीवन में प्रारब्ध भी है और नई क्रियाओं का बंध भी है।
कर्मफल यह स्वयं के लिए ही बोए हुए बीज का फल है। उन्हें काटते समय हर्ष या शोक करने की जरूरत नहीं है। हंसकर या रोकर काटने के बदले निर्विकार भाव से क्षय करना, यही श्रेष्ठ मार्ग है। पूर्व कर्म के उदय से जो सुख-दु:ख आते हैं अनासक्त भाव से भोगने चाहिए। उससे पुराने कर्म खत्म हो जाएंगे और नए कर्मों का बंध नहीं होगा।
कर्मफल के साथ लड़ाई न करें। सुख के समय राग या दु:ख के समय द्वेष करना यह कर्म के बंधन में जकड़े रहने का कार्य है। दोनों प्रसंगों में राग-द्वेष के बंधनों से रहित होना यही मुक्ति का उपाय है। जड़ वस्तु का राग छूट जाए तो जीव तत्त्व का द्वेष छूट जाएगा।
पर-वस्तु का राग यह भव रोग हैं। उसमें से भवरूप बंधन पैदा होता है। सच्चे भवनिर्वेद का अर्थ यह है कि देह भी उपाधि रूप लगनी चाहिए, क्योंकि वह भी कर्म का सर्जन है। उसका विसर्जन आत्मा के चरणों में करने से भवनिर्वेदपूर्ण जीवन बनता है।
कर्मसत्ता न्यायी सत्ता है। उसके तंत्र में पक्षपात के कोई स्थान नहीं है इसीलिए जैसा होना चाहते हो, वैसा कर्म करना चाहिए।
नीम के बीज बोने के बाद बोलो कि ‘आम नहीं आया’ उसका क्या अर्थ? तात्पर्य यह कि अशुभ कर्म को जीवमात्र का कठोर शत्रु समझकर उससे सर्वथा दूर रहना चाहिए।