मैंने पूछा :- हे मेरे जीव,
तू सारी दुनिया से लड़ सकता है, लड़ता है और विजय प्राप्ति की इच्छा भी रखता है, कई बार विजय प्राप्त कर भी लेता है, तो फिर तू खुद से क्यूँ नहीं लड़ता ?
जीव का जवाब : क्यूँ की यह एक जगह है जहाँ मुझे “जीतना” नहीं, “जीना” है।”
आहा! कितना मोह!
अक्सर जीने की चाह – जीने की इच्छा अपने लिए हम अलग दृष्टि, अलग सोच रखते है, और यही बात दूसरों पर जब लागू करनी हो तो हमारी दृष्टि, हमारी सोच अलग हो जाती है। यही दो तरह की दृष्टि, नजरिया, द्वैत बुद्धि की तरफ हमें खिंच ले जाता है।
यही दोहरापन हमें द्वैत बुद्धि की तरफ अग्रसर करता है।
बाह्य पदार्थ तो क्या? मोक्ष की इच्छा भी मोक्ष प्राप्ति में बाधक हो जाती है जब इच्छुक, इस प्रबल इच्छाशक्ति के होते हुए, कई बार लक्ष्य से भटक, क्रिया और प्रतिक्रया के आधार पर द्वैत बुद्धि पर आश्रित हो जाता है।
बँध-मोक्ष, राग-द्वेष, कर्म-आत्मा, शुभ-अशुभ इत्यादि प्रकार से जो द्वैत (दो पदार्थों से मिश्रित) बुद्धि होती है, उस से संसार परिभ्रमण होता और बढ़ता रहता है।
इसके विपरीत अद्वैत ( एकत्व ) बुद्धि से जीव मुक्ति के सन्मुख होता है ।
शुद्ध निश्चयनय के आश्रित इस अद्वैत बुद्धि में एकमात्र अखंड आत्मा प्रतिभाषित होती है। उसमे दर्शन, ज्ञान, चारित्र्य तथ क्रिया कारक आदि का कुछ भी भेद प्रतिभाषित नहीं होता है और तो क्या उस अवस्था में तो जो शुद्ध चैतन्य है वही निश्चय से मैं हूँ
इस प्रकार का भी विकल्प नहीं होता।
मुमुक्ष योगी मोह के निमित्त से उत्पन्न होने वाली मोक्ष विषयक इच्छा को भी
उसके प्राप्ति में बाधक मानते है।
फिर भला वे अन्य किसी बाह्य पदार्थ की अभिलाषा करे? यह सर्वतः असंभव है ।
इसीलिए हे जीव,
द्वैत बुद्धि से एकत्व बुद्धि के प्रति अग्रसर हो, मोक्ष प्राप्ति की भी इच्छा मात्र नहीं रखते हुए, बस अपने शुभ कर्म किये जा। “मैं” तो कही रहे ही नहीं, बस जो है वह सिर्फ एकत्व एक मात्र शुद्ध चैतन्य रुपी अखंड आत्मा।
॥जिसके मन मे हो सब से, एक सा करुणा भाव,
प्रभु वीर की समझो वह तो, पा लिया हो सुवास॥