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मान-दान का प्रभाव

मानव को मान कषाय की अधिकता है इसीलिए अभिमान छोड़कर पूज्य व्यक्तियों के नाम ग्रहण पूर्वक मान देने मंं जो मानव जन्म की सार्थकता है।

देव-गुरु के नमस्कार से धर्म का प्रारंभ होता है। उसके मध्य एवं अंत में भी नमस्कार द्वारा ही मानरहित और ज्ञानसहित बनते हैं। इसीलिए श्री नवकार परम मंगलकारी है।

दूसरों की तरह ही आप्तजनों की अच्छी बातों को मानने की आदत पड़ने से मान कम होता है और धर्म का मूल विनय पुष्ट होता है। आध्यात्मिक सुख और शांति पाने का उपाय अपना मान नहीं किंतु दूसरों को मान देना है।

प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य का विकास दूसरों को मान देने से होता है। मान मांगने से नहीं अर्थात मन-वचन और काया से दूसरों को मान देना सीखना चाहिए। यही आत्मविकास का सरल और निश्चित मार्ग है।

प्रभुजी की आकृति के दर्शन से सालोक्य मुक्ति और प्रभु के नाम ग्रहण से सामीप्य मुक्ति। प्रभु के आत्मद्रव्य के चिंतन से सारूप्य मुक्ति और प्रभु के भाव के साथ तन्मय होने से सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है।

यह चारों प्रकार की मुक्ति ‘मान’ मुक्ति के पर्याय रूप मुक्ति है।

पूज्यो के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव की भक्ति पूर्वक ह्रदय में स्थान देने से मान कषाय से मुक्त बनते हैं। ‘मान मुक्ति’ से अन्य कषायों से मुक्ति सुलभ बनती है। दान भी मान को छोड़ने हेतु बने, तो ही धर्मरूप बन सकता है, प्रत्येक धर्म क्रिया मुख्य रूप से मानव को मान कषाय पर विजय प्राप्त करने के लिए ही बताइ गई है।

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