रोज का खाना बनाने वाली माँ हमें याद रहती है,
लेकिन जीवन भर के खाने की
व्यवस्था करने वाला बाप हम भूल जाते हैं ।
माँ रोती है, बाप नहीं रो सकता, खुद का पिता मर जाये फ़िर
भी नहीं रो सकता,
क्योंकि छोटे भाईयों को संभालना है,
माँ की मृत्यु हो जाये भी वह
नहीं रोता क्योंकि बहनों को सहारा देना होता है,
पत्नी हमेशा के लिये साथ छोड जाये फ़िर भी
नहीं रो सकता,
क्योंकि बच्चों को सांत्वना देनी होती है ।
देवकी-यशोदा की तारीफ़ करना चाहिये, लेकिन बाढ में सिर पर टोकरा उठाये वासुदेव को
नहीं भूलना चाहिये। राम भले ही कौशल्या का पुत्र हो लेकिन उनके वियोग में तड़प कर जान देने वाले दशरथ ही थे ।
पिता की एडी़ घिसी हुई चप्पल देखकर उनका प्रेम समझ मे आता है,
उनकी छेदों वाली बनियान देखकर हमें महसूस होता है कि
हमारे हिस्से के भाग्य के छेद उन्होंने ले लिये हैं।
लड़की को गाऊन ला देंगे, बेटे को ट्रैक सूट ला देंगे,
लेकिन खुद पुरानी पैंट पहनते रहेंगे । बेटा कटिंग पर
पचास रुपये खर्च कर डालता है और बेटी
ब्यूटी पार्लर में, लेकिन दाढी़
की क्रीम खत्म होने पर एकाध बार
नहाने के साबुन से ही दाढी बनाने वाला पिता बहुतों ने देखा होगा।
बाप बीमार नहीं पडता, बीमार हो भी जाये तो तुरन्त अस्पताल नहीं जाते,
डॉक्टर ने एकाध महीने का आराम बता दिया तो
उसके माथे की सिलवटें गहरी हो जाती हैं,
क्योंकि लड़की की शादी करनी है, बेटे की शिक्षा अभी अधूरी है।
आय ना होने के बावजूद बेटे-बेटी को मेडिकल / इंजीनियरिंग में प्रवेश करवाता है।
कैसे भी “ऎड्जस्ट” करके बेटे को हर महीने पैसे भिजवाता है
(वही बेटा पैसा आने पर दोस्तों को पार्टी देता है) ।
किसी भी परीक्षा के परिणाम आने पर माँ हमें प्रिय लगती है, क्योंकि वह तारीफ़ करती है,
पुचकारती है, हमारा गुणगान करती है, लेकिन चुपचाप जाकर
मिठाई का पैकेट लाने वाला पिता अक्सर बैकग्राऊँड में चला जाता है।
पहली-पहली बार माँ बनने पर स्त्री की खूब मिजाजपुर्सी होती है,
खातिरदारी की जाती है (स्वाभाविक भी है आखिर उसने कष्ट उठाये हैं)
लेकिन अस्पताल के बरामदे में बेचैनी से घूमने वाला, ब्लड ग्रुप की मैचिंग के लिये अस्वस्थ,
दवाईयों के लिये भागदौड करने वाले बेचारे बाप को सभी नजरअंदाज कर देते हैं
ठोकर लगे या हल्का सा जलने पर
“ओ माँ” शब्द ही बाहर निकलता है,
लेकिन बिलकुल
पास से एक ट्रक गुजर जाये तो “बाप..रे” ही मुँह से निकलता है ।