भक्ति में वैराग्य और ज्ञान है क्योंकि जिनकी भक्ति करनी है, उन्होंने संसार को नि:सार माना है और मोक्ष को ही सारभूत माना है मोक्ष का लाभ और संसार का अंत आत्मज्ञान से ही किया है, इस कारण मोक्ष में गए हुए, मोक्ष में जानेवाले और मोक्षमार्ग में रहे जीवो पर की भक्ति यह वैराग्य की ही भक्ति है और आत्मज्ञान की उपासना है।
भक्तिशून्य आत्माओं का वैराग्य वह दु:खगर्भित या मोहगर्भित है; जबकि भक्तिमान आत्माओं का वैराग्य ज्ञानगर्भीत होता है अथवा ज्ञानगर्भित वैराग्य वाले भक्तिरहित कभी नहीं होते इस प्रकार भक्तिशून्य आत्मज्ञानी भी सच्चे आत्मज्ञान को पाए हुए नहीं है।
आत्मज्ञान और उसकी लालसा अंश मात्र भी जिसमें होती है वे आत्मज्ञान द्वारा साध्य भववैराग्य और मोक्षराग युक्त होते हैं और मुक्त आत्माओं के प्रति भक्ति भाव से भरपूर उनकी मनोवृत्ति होती है।
वैराग्य दृश्य वस्तु में नहीं किंतु वस्तु के विचार में रहा है। विचार में विषयों का दोषदर्शन और दोषदर्शन से वैराग्य यह क्रम है।
ज्ञानी हो या अज्ञानी, दु:ख किसी को नहीं छोड़ता। ज्ञानी सुख-दुख को जान सकते हैं लेकिन उसमें अंश मात्र परिवर्तन नहीं कर सकते। क्योंकि कर्म का नियम अनुल्लंघनीय है।उसके ऊपर सत्ता फिर धर्म की चलती है। धर्म का नियम जीव मैत्री और प्रभु भक्ति के अधीन है।
भगवान की भक्ति से जो कार्य हुआ, वह भगवान से ही हुआ ऐसा मानना यह व्यवहार नय का सिद्धांत है। इस दृष्टि से कर्म के नियम पर भगवान का प्रभुत्व है ऐसा कह सकते हैं। भगवान की आज्ञा के पालन से कर्म का क्षय कर सकते हैं अतः कर्म क्षय में प्रबल कारण भगवान की आज्ञा है। उस आज्ञा का पालन यह जीव का भाव है, जबकि उसके स्वामी भगवान है।
भगवान के स्वामित्व से ही भगवान की आज्ञा उसके पालन करने वाले का हीत करती है। इस कारण भगवान विश्व के हित करने वाले हैं, ऐसा कहना यथार्थ है। इसलिए भगवान को आज्ञा रूप से सभी जगह देख रहा अप्रमत्त साधक किसी भी जगह पाप नहीं कर सकता । आज्ञा के स्वीकार से पाप करने की वृत्ति समाप्त हो जाती है।