भक्ति बिना चित्त की शांति पाना अशक्य है। क्योंकि अशांति का बीज अहंकार है। इस कारण जप-तप-श्रुत करने की भावना जिनकी करुणा कृपा से होती है, उन्हें निरंतर स्मरण करने से अहंकार पैदा नहीं होता।
संत पुरुषों की करुणा विश्व पर सदा बरसती रहती है और सभी जीवो के उत्थान में सहाय करती है। ऐसा स्वीकार किए बिना भक्ति पैदा नहीं होती और भक्ति बिना, अहंकार का नाश नहीं होता।
विश्व पर प्रभुत्व प्रभु की करुणा का है और वह करुणा विविध रूप से अपना कार्य करती रहती है।
भक्त के अधीन भगवान है। अर्थात इतना ही है कि प्रभु की करुणा को हृदय से मान देने वाले भक्तों का कल्याण हुए बिना नहीं रहता।
भक्ति मुक्ति की दूती है। उसका अर्थ यह है कि भक्ति के बिना अहंकार दोष से कोई मुक्त नहीं हो सकता। अहंकार जाने से अन्य दोषों से मुक्ति दुष्कर नहीं है।
दोष दो प्रकार के हैं-
(1) अहंकार रूप और
(2) ममकार रूप ।
ममकार रूप दोष विषयों के दोषदर्शन से दूर होता है।
अहंकार रूप दोष अपने स्वयं के दोषदर्शन से दूर होता है।
अपने में बड़े से बड़ा दोष कृतघ्नता और स्वार्थ परायणता है। उसका निवारण मात्र भक्ति से हो जाता है क्योंकि भक्ति कृतज्ञता एवं परार्थ रूप है। उपकार को जानने से कृतज्ञता और उपकार करने से परार्थता आती है।
भक्तिजन्य शक्ति से संपूर्ण आसक्ती का क्षय होता है और आत्मभाव सशक्त बनता है।
योग यानी चित्तवृत्ति का निरोध। चित्तवृत्ति को अशुभ में से शुभ में धारण करना यह एक प्रकार का भक्ति योग है। ‘नमो अरिहंताणं’ पद में भक्ति योग है। जहां भक्ति है वहां ज्ञान और वैराग्य भी होता है।
वैरागी और ज्ञानवान की भक्ति, सच्ची भक्ति है।
जहां भक्ति है वहाँ गौण रूप से वैराग्य और ज्ञान भी होता है।
वैराग्य में त्याग हैं उसमें भी गौण रूप से भक्ति और ज्ञान है।
भगवान के वचनों पर सद्भाव रखकर जो त्याग करने में आता है उसमें भगवान के प्रति भक्ति प्रकट होती है क्योंकि त्याग के मूल में भगवान के वचन का सद्भावपूर्वक स्वीकार होने से वचन के प्रदाता ऐसे भगवान की और वचन से भी अधिक सद्भाव-अहोभाव पैदा होना यह स्वाभाविक है।
श्री जिनवचनानुसार बोध और त्याग ही वास्तव में ज्ञान और वैराग्य रूप में फलित होते हैं।
तात्पर्य यह है कि श्री अरिहंत परमात्मा में मन तल्लीन हो जाए तो मानव-जन्म जरुर सफल बनेगा।