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भगवत चिंतन

भगवान का नाम स्वयं भगवान है। जीभ पर नाम आते ही भगवान की करुणा, प्रेम, दया, अहिंसा, अस्तेयादी गुण अपने भीतर आते हैं।

मुख में नाम आते ही ‘में पवित्र हूँ’ ऐसी प्रतीत होने चाहिए। नाम और नामी लगभग एक ही है।

नाम के जाप के साथ भगवान ह्रदय में आ रहे हैं, भगवान की झांकी ह्रदय में हो रही है,ऐसा लगना चाहिए, प्रभु का नाम सर्व शक्तिमान है, इस विश्वास पर निर्भर रहना चाहिए।

भगवान की शरणागति मांगने में भगवान की निष्कारण करुणा-कृपा कारण है। इसलिए परमात्मा को निष्कारण करुणा सिंधु कहां है।

भगवान का सेवक विषयों का गुलाम नहीं बनता, अहंकार-ममकार का सेवन नहीं करता। अनुकूल विषय न मिलने पर चित्त में जो क्षोभ होता है, वह विषय की गुलामी को सूचित करता है। भगवान के लिए जो रुदन करता है उसका दुनिया या दुंयवी पदार्थों के लिए रुदन मिट जाता है।

साधना में 3 वस्तुएं विघ्नभूत है।
(1) अर्थ
(2) काम
(3) मान

इन तीन कचरों को निकालकर, भगवान के आगमन के लिए ह्र्दयभूमि को स्वच्छ रखना जरूरी है।

भीति से नहीं किंतु प्रीति से प्रभु का स्मरण करें! प्रभु प्रियतम है।

सेवक का जीवन भगवान का जीवन है, उसे भगवत सेवा के अलावा अन्य कार्य में जुड़ना नहीं चाहिए।

विषय चिंतन का स्थान, भगवत चिंतन हो जाए तब साधना का प्रारंभ होगा। भगवान निर्विषयी है, निष्कषायी है इस कारण भगवान को भजनेवाले को भी उसके अनुरूप जीवन जीना चाहिए।

विषयों से विरक्ति और भगवान की भक्ति इन दो उपायों से प्रभु-प्राप्ति होती है।

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