इस संसार में अगर कोई अनजान व्यक्ति भी किसी सड़क पर या रास्ते में खतरे का बोर्ड लगा देता है, तो हम उस बोर्ड पर लिखे निर्देशों का पालन करने लगते हैं।
हम उस अनजान व्यक्ति की तारीफ़ भी करने लगते हैं और हमको उस अनजान व्यक्ति पर इतना विश्वास हो जाता है कि हम उसके बताये अनुसार मार्ग भी बदल लेते हैं।
किन्तु जब हमारे श्रध्देय परम पूज्य परमोपकारी अनंत सिद्ध भगवंत, आचार्यगण, मुनिजन, सद्गुरु इस संसार में राग के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को अनादिकाल से समझा रहे हैं कि देखो
आप जिस मार्ग पर चल रहे हो, वह –
1. राग का मार्ग है,
2. विषयों का मार्ग है,
3. चौरासी लाख योनियों का मार्ग है,
4. अनन्त भव भ्रमण का मार्ग है,
5. निगोद की अनन्त गहराईयों का मार्ग है,
6. अगर आप आगे जाते हो, तो आगे एक बहुत ही खतरनाक फिसलन है
7. जो आप को सीधे निगोद (नरक से भी बहुत निम्न श्रेणी की अघोगति) की अनन्त गहराईयों में ले जायेगी.
8. तब आप श्री सदगुरू के अत्यन्त करूणा वश कहे गये इन वचनों का पालन करने से हिचक क्यों रहे हो?
हे चैतन्य प्रभो, अब अगर आप फिर भी इस राग-मार्ग पर चलना नहीं छोड़ते हो, तो –
1. इसका एकमात्र कारण यह है कि आप अपने आप को इस शरीर जितना ही मानते हो
2. तथा इस शरीर की ही समस्त क्रियाओं में अपनी क्रिया मानते हो।
3. इसके पोषण में अपना पोषण मानते हो।
4. इसके छेदन-भेदन में अपना छेदन-भेदन मानते हो।
5. फिर आप में और अन्य संसारी लोगो में क्या फर्क रहा?
6. थोडा विचार तो करो कि यह मनुष्य भव, इस चैतन्य-तत्व की बात आप को किसलिये मिली है?
7. क्या आप फिर भी इस संसार में ही भ्रमण करना चाहते हो?
8. आप कहते भले ही हो कि आप अपने आपको आत्मा मानते हो,
9. किन्तु क्या बातों के पकवान से किसी का पेट भर सकता है?
10. इसी तरह आपके आत्मा-आत्मा कहने से
11. आपको आत्मा नहीं मिल सकती है।
12. जैसे कोई व्यक्ति ठंड से कांप रहा हो और आग-आग कहे तो क्या उसकी ठंड भाग जायेगी?
13. अरे ठंड भगाने के लिये उसे आग के समीप जाकर अपने हाथ पांव तापना होगा, तभी उसका कांपना बंद होगा।
14. इसी तरह भले ही इस संसार के दुखों से डर कर आप आत्मा-आत्मा कहो और आत्मा के समीप न जाओ;
15. अपने आप को अनादि-अनन्त, अविनाशी, सहजानन्दी शुद्ध स्वरूपी नहीं समझो,
16. तब आपकी आत्मा आपको नहीं मिलेगी।
17. अतः आपको अपने समस्त राग-द्वेष छोड़कर ज्ञाता-द्रष्टापने से साक्षी भाव से उसके पास जाना पड़ेगा,
18. तभी आप को अनादि की इस कचौटती ठंड से मुक्ति मिलेगी.
19. फिर आप भी अनन्तकाल के लिये सहज सुख, सहज आनन्द में डूब जाओगे।
अष्टावक्र गीता प्रकरण 2, सूत्र 22, 23, 24, 25 में समझाया गया है कि –
1. न मैं शरीर हूँ,
2. न मेरा शरीर है;
3. मैं जन्म-मरण करने वाला जीव भी नहीं हूँ;
4. निश्चय से मैं चैतन्यमात्र ही हूँ.
5. मेरा यही बन्ध था कि मेरी इस संसार में जीने की इच्छा थी.
6. अब मैं सभी इच्छाओं से मुक्त होता हूँ.
7. अहो कितने आश्चर्य की बात है कि अनंत समुद्र रूपी मुझ में मन (चित्त) रुपी हवा के उठने पर शीघ्र ही विचित्र जगत रुपी तरंगें पैदा होती हैं.
8. अहो कितने आश्चर्य की बात है कि अनन्त महासागर रूपी मुझ में मन (चित्त) रूपी वायु के शांत होने पर जन्म-मरण करने वाले जीव रूपी व्यापारी के अभाग्य से यह संसार रूपी नौका नाश को प्राप्त होती है.
9. अहो कितने आश्चर्य की बात है कि अनन्त महासागर रूपी मुझ में जन्म-मरण करने वाले जीव रूपी तरंगें उठते हैं, परस्पर संघर्ष करती हैं, खेलती हैं तथा स्वभाव से ही शान्त हो जाती हैं.
10. इस तरह से आपके चैतन्य प्रभो की महिमा अद्भुत है, अपार है, अकल्पनीय है, अलौकिक है.
11. यह तो सर्वोच्च कोटि की आध्यात्म की चर्चा है.
12. अतः इसी तरह की सर्वोच्च कोटि की आध्यात्मिक चर्चा करने के लिए आपका स्वागत है.
ॐकार वाणी, जन-जन वाणी ।