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अनुग्रह और अनुराग की शक्ति

अनुग्रह से अनुराग और अनुराग से अनुग्रह बढ़ता है।

अनुराग यह भक्ति की (receptivity) है और अनुग्रह यह भगवान का (response) है।

अनुग्रह अनुराग की अपेक्षा रखता है। इन दोनों शब्दों में ‘अनु’ शब्द है, वह सूचक है। अनुग्रह और अनुराग परस्पर सापेक्ष है, ऐसा सूचन करता है।

अनुग्रह और अनुराग दोनों मिलकर नमस्कार पदार्थ बनते हैं। अनुग्रह द्वारा सहजमल का हास होता है और अनुराग द्वारा तथाभव्यत्व का विकास होता है। परमात्मा स्वभाव से ही अनुग्रहशील है। साधुओं का अनुग्रह सौमनस्य द्वारा होता है।

सौमनस्य यानी मैत्र्यादि भावयुक्तता। सौमनस्य साधुता यह द्रव्यसाधुता है। परमात्मा का अनुग्रह साधु पुरुषों की अपेक्षा रखता है और साधु पुरुषों का अनुग्रह परमात्मा के अनुग्रह की अपेक्षा रखता है।

अप्रत्यक्ष में प्रत्यक्षतुल्य विश्वास श्रद्धा का लक्षण है। भगवान के चरणों में पूर्ण श्रद्धा रखना यह भक्ति का सर्वप्रथम उपाय है। भगवान के गुणों और स्वरूप का नित्य नियमपूर्वक कीर्तन करने से श्रद्धा उत्तरोत्तर दृढ़ बनती है।

ऐसी श्रद्धा दुर्बल को बलवान बनाती है।
श्रद्धा में विवाद, विचार या तर्क को स्थान नहीं है।
श्रद्धा बिना का जीवन शुष्क है, जल बिना के सरोवर जैसा है।
श्रद्धा ईश्वर तत्व को खींचने का चुंबकीय तत्व है।
श्रद्धा अप्राप्य को प्राप्य कराती है। विष को अमृत बनाती है।
श्रद्धा से भवसागर तर सकते हैं, अश्रद्धा भवसागर में डूबा देती है।
श्रद्धा से मंत्र, देव, गुरु फलीभूत होते हैं।

परमतत्व पर की श्रद्धा कभी निष्फल नहीं होती, यथा अवसर फलदायी बनती ही है।

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