कुछ देर बाद धन गिरी मुनि ने राजोहरण बताते हुए कहा ,हे बाल वज्र! यदि तूं धर्म को भजना चाहता है तो कर्म रूपी रज का मार्जन करने में समर्थ इस रजोहरण को धारण कर ।कर्म के बंधन से ग्रस्त जीव अन्य सामग्री तो हर भव में सुलभ है किंतु कर्म का उच्छेद करने में समर्थ इस धर्म की प्राप्ति अत्यंत ही दुर्लभ है।
अपने उपकारी गुरु भगवंतों के वचनों को सुनकर बाल वज्र एकदम खुश हो गया।
उसी समय संघ ने रजोहरण और मुख वस्त्रिका रखते हुए कहा, है वज्र!यदि तुझे संयम ग्रहण करने की इच्छा हो, तो इस रजोहरण को ग्रहण कर अन्यथा माता ने जो वस्तुएँ प्रदान की है, उसे ग्रहण कर।
वज्र ने सोचा, माता की अपेक्षा श्री संघ मेरे लिए विशेष आदरणीय है। इस प्रकार विचार कर उसने वह रजोहरण अपने हाथ में ले लिया और उसे मस्तक पर धारण कर नाचने लगा।
उसके बाद वह बाल वज्र पिता की गोद में जाकर बैठ गया। उसी समय मंगल वाद्ययंत्रों की ध्वनि से आकाश मंडल गूंज उठा।
राजा ने भी संघ व गुरुजनों का आदर सत्कार किया।
सुनंदा ने सोचा, अहो! मेरा यह पुत्र दीक्षा ले लेगा। पहले भी मेरे भाई वह मेरे पति ने दीक्षा अंगीकार की है, अतः मंं अकेली घर पर रहकर क्या करूंगी . . . मैं भी उसी मार्ग को स्वीकार करती हूं ।इस प्रकार विचार कर उसने सिंहगिरी आचार्य भगवंत के पास जाकर भगवती दीक्षा स्वीकार कर ली।
चरित्र प्रभाव
छः वर्ष की लघवयु में बाल वज्र को भागवती दीक्षा प्रदान की गई। क्रमशः वज्रमुनि आठ वर्ष के हुए।
एक बार वज्रमुनि को साथ में लेकर आचार्य भगवंत ने अवंती की ओर विहार प्रारंभ किया। विहार दरम्यान अचानक वर्षा होने लगी। उस समय सभी साधु यक्षमंडप में आ गए ।उस समय वज्रमुनि के सत्त्व की परीक्षा करने के लिए उनके पूर्वभव का मित्र तिर्यंक् जृम्भक देव वहां पर आ गया आया और उसने सार्थवाह का रूप धारण कर छावनी डाल कर वहां पर रहा।