सुनंदा की हार
संसार के संबंध स्वार्थ से भरे हुए है। सांसारिक संबंधों में हमें जहां-तहां स्वार्थ की बदबू दिखाई देती है।
सुनंदा को जब इस बात का पता चला कि उसका बालक साध्वी जी के उपाश्रय में रहा हुआ है और वह एकदम शांत हो चुका है, वह साधु जी के पास आ पहुंची और अपने बालक को ले जाने के लिए आग्रह करने लगी।
जिस सुनंदा ने रोते हुए बालक को स्वेच्छा से त्याग किया था……. आज वही सुनंदा चूप हुए इस बालक वज्र को पुनः अपने अधिकार में लेने के लिए साध्वीजी म. के पास आग्रह करने लगी।
साध्वीजी भगवंत ने कहा, इस बालक पर हमारा कोई अधिकार नहीं है…… यह तो गुरुदेव कि अमानत है। अतः पूज्य गुरुदेव की अनुमति के बिना यह बालक हम तुम्हें सौप नहीं सकते।
कुछ समय आर्य सिंहगिरी अपने परिवार के साथ पुनः उस नगर में पधारे। सुनंदा धनगिरी के पास पहुँच गई और अपने पुत्र को ले जाने के लिए आग्रह करने लगी।
धनगिरी में समझाते हुए कहा, यह बालक मैंने अपनी इच्छा से ग्रहण नहीं किया है; अनेकों की साक्षी में तुमने यह बालक मुझे सौंपा है………….. अतः इसे वापस लेने के लिए आग्रह नहीं करना चाहिए। सज्जन पुरुषों का वचन तो पत्थर की लकीर की भांति होता है।
बहुत कुछ समझाने के बाद भी सुनंदा ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। तत्पश्चात् संघ के अग्रणी श्रावको ने उसे समझाने की कोशिश की………. फिर भी वह नहीं मानी। वह अपनी जीद्द पर अटल रही……..इतना ही नहीं अपने पुत्र को पाने के लिए वह राज दरबार में जा पहुँची। उसने जाकर राजा को शिकायत की।
सुनंदा की बात सुनकर राजा भी अचरज में पड़ गया। वह सोचने लगा, जैन साधु कभी भी अदत्त का ग्रहण नहीं करते है, तो इस घटना के पीछे रहस्य को जानना चाहिए। सुनंदा की शिकायत के बाद धनगिरी आदि मुनि ने भी जाकर राजा को वास्तविकता समझाई। राजा सोच में पड़ गये।
आखिर सोच-विचार कर राजा ने धनगिरी मुनि और सुनन्दा को समाधान देते हुए कहा, कि ‘कल तुम दोनों अपने परिवार के साथ राज सभा में उपस्थित रहना और इस बालक को भी उपस्थित रखना।’