धर्म लाभ के आशीष सुनते ही सुनंदा की सखियाँ भी वहां आ गई।
सुनंदा ने कहा; मैं इस पुत्र के रुदन के कारण अत्यंत ही कंटाल गई हूं . . . अतः आप इसे ग्रहण करें । आपके पास रहकर भी यह सुखी रहता हो तो उससे मुझे खुशी होगी।
धनगिरी ने कहा, इस पुत्र को ग्रहण करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है . . . परंतु स्त्रियों के वचन का कोई भरोसा नहीं है। वह जो आज बोलती है . . .कल वापस बदल भी जाती है । अतः इस विवाद का अंत लेने के लिए किसी को साक्षी / गवाही करना जरूरी है।
उसी समय सुनंदा ने कहा, यह आर्यसमिति मुनि और ये मेरी सखियाँ साक्षी रहेगी।
सुनंदा कि इस बात को सुनकर धनगिरी मुनि ने अपनी झोली फैलाई और उसी समय सुनंदा ने अपना पुत्र धनगिरी की झोली में डाल दिया।
धनगिरी ने सोचा, अहो! गुरुदेव कितने ज्ञानी है। सचित भिक्षा के लिए भी जो सम्मति दी, उसका यही रहस्य था कि आज भिक्षा में इस बालक की प्राप्ति होगी।
धनगिरी मुनी अपनी झोली में बालक को उठाकर अपनें गुरुदेव के पास पधारे। बालक के अतिभार को वहन करने के कारण धनगिरी मुनि का हाथ, एकदम नम चूका था . . . भारी वजन को उठाकर आए धनगिरी को देखते ही सिंहगिरी आचार्य शिष्य के सन्मुख गए और उन्होंने अपनें दोनों हाथों से उस झोली को उठा दी।झोली के अतिकार को देखकर गुरुदेव बोले,अहो!यह वज्र की भांति क्या लाए हो?. . . उसी समय गुरुदेव ने अपनें आसन पर से बालक को देखा . . . गुरुदेव के मुख से निकले `वज्र’ नाम के कारण उस बालक का नाम `वज्र’ रखा गया ।
गुरुदेव ने वह बालक साध्वी जी भगवंत को सौंप दिया। साध्वी जी भगवंत ने उपाश्रय में श्राविकाएँ उस बालक का अच्छी तरह लालन- पालन करने लगी । श्राविकाएँ अत्यंत ही प्रेम और वात्सल्य से बालक की अच्छी तरह से संभाल लेने लगी।
रात्रि के समय में जब साध्वी जी भगवंत ग्यारह अंगों का स्वाध्याय करती . . . तब यह बाल वज्र साध्वी जी भगवंत के मुख से स्वाध्याय की उन गाथाओं को अत्यंत ही ध्यान पूर्वक सुनता. . . पूर्व जन्म की आराधना और तीव्र ज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशम के कारण, बाल वज्र को वे सारी गाथाएँ कंठस्थ हो जाती। इस प्रकार मात्र तीन वर्ष की वय में ही बाल वज्र ग्यारह अंग के ज्ञाता बन गए।