धन गिरी के दिल में नारी देह का कुछ भी आकर्षण नहीं था। उसका मन तो मुक्ति- वधू को पाने के लिए लालयित बना हुआ था। जिस संयम की साधना से मुक्ति-वधू का संगम हो सके, उसे पाने के लिए वह अत्यंत ही आतुर था।
दीक्षा की प्रबल भावना होने पर भी पारिवारिक दबाव के आगे धनगिरी को झुकना पड़ा और अनिच्छा से भी उसे सुनंदा के साथ लग्न-ग्रंथि से जुड़ना पड़ा।
लग्न जीवन की स्वीकृति के बाद भी उसके दिल में संयम का आकर्षण पूर्ववत् बना हुआ था। संयम के लिए सानुकूल संयोगों की प्राप्ति के लिए इंतजार कर रहा था। कुछ समय व्यतीत हुआ……. और सुनंदा गर्भवती बनी।
अष्टापद महातीर्थ की यात्रा करते समय गौतम स्वामी भगवान ने जिस सामानिक देव को प्रतिबोध दिया था……..उस देव का आयुष्य पूरा हो गया।देवायु की समाप्ति के साथ ही उस देव का सुनंदा की कुक्षी में अवतरण हुआ। गर्भ में एक महान आत्मा का अवतरण होने से सुनंदा एक सुंदर स्वप्न देखा। उसका देह हर्ष से रोमांचित हो उठा……… उसका ह्रदय प्रसन्नता से भर आया।
एक महान आत्मा का गर्भ में अवतरण होता है जब चारों और वातावरण में भी प्रसन्नता छा जाती है।
धनगिरी ने सोचा, सुनंदा पुत्र के सहारे अपना जीवन निर्वाह आसानी से कर सकेगी; यह इस प्रकार विचार कर उसने सुनंदा को कहा, प्रिये! मेरा मन तो पहले से ही संयम लक्ष्मी को पाने के लिए अत्यंत ही उत्सुक था . . . यह बात मैंने पहले से ही स्पष्ट कर दी थी. . . अब तूं गर्भवती बन चुकी है, भविष्य में तेरा पुत्र तुझे सहायक बन सकेगा । और तूं मुझे दीक्षा के लिए अनुमति दे दे ।
यद्यपि सुनंदा के लिए पति के प्रेमपाश के बंधन को तोड़ना अत्यंत ही कठिन था. . . परंतु धनगिरी ने लग्न- जीवन की स्वीकृति के पहले ही जब यह बात स्पष्ट कर दी थी . . . अतः उसको बोलने के लिए कोई अवकाश नहीं था। अनिच्छा होते हुए भी उसे मुक सम्मति प्रदान करनी पड़ी ।
. . . बस, सम्मति मिलते ही धनगिरी, सिंहगिरी मुनि के पास पहुँच गया। जर्जरित धागे की भांति मोहपाश के बंधन को तोड़ कर उसने भागवती दीक्षा स्वीकार कर ली। सुनंदा के भाई आर्यसमिति ने भी सिंहगिरी के पास जाकर दीक्षा ले ली!