लोगों की इस बात को सुनकर आकाशगामिनी विद्या के बल से वज्रस्वामी माहेश्वरी वन में गए। उस वन में धनगिरी का मित्र तडित नाम का माली था। वज्रस्वामी के आगमन को देखकर वह खुश हो गया और बोला, आपके दर्शन कर आज में कृत-कृत्य हो गया हूं……. मेरे योग्य सेवा कार्य फरमाइए।
वज्रस्वामी ने कहा, कल हमारा वार्षिक पर्व है, अतः उसके लिए महापुर नगर में प्रभु-भक्ति के लिए पुष्प चाहिए। यह सुनकर उस माली ने 20 लाख पुष्प प्रदान किए उन्हें लेकर वे लघु हिमवंत पर्वत पर गए और वहां शाश्वत जिन प्रतिमाओं को वंदन कर वहां के देवता के पास से तथा बीच मार्ग में हुताशन क्षय के वन देवता के पास से फूल लिए। इन सब फूलों को लेकर भी महापुर नगर में पधारे और वहाँ पर भव्यातिभव्य प्रभु भक्ति का महोत्सव किया।
वज्रस्वामी के इस प्रभाव को देखकर बौद्धराजा भी अत्यंत ही प्रभावित हुआ। राजा तथा प्रजाजनों ने जैन धर्म का स्वीकार किया। जैन शासन की अद्भुत प्रभावना हुई।
अनशन स्वीकार
अपने चरण कमलों से पृथ्वीतल को पावन करते हुए वज्रस्वामी अपने उपदेश द्वारा अनेक भव्य जीवो पर उपकार करने लगे। वे वज्रस्वामी क्रमशः विहार करते हुए दक्षिण पथ में पधारें। वहां एक बार उन्हें श्लेष्म की तकलीफ हुई। शिष्यो के आग्रह से उन्होंने औषध के रूप में सूंठ का टुकड़ा कान पर रख दिया। और फिर वे स्वाध्याय में मग्न हो गए। इस कारण वे सूंठ का टुकड़ा वापरना भूल गए। प्रतिक्रमण समय कान की प्रतिलेखना करते समय जब वह सूंठ का टुकड़ा नीचे गिरा-तब वे सोचने लगे, अहो! लगता है अब मेरा आयुष्य स्वल्प ही है।
अपने आयुष की अल्पता जानकर वज्रस्वामी ने अनशन करने का निश्चय किया।
उस समय 12 वर्ष का भयंकर अकाल पड़ा वज्रस्वामी ने अपने शिष्य वज्रसेन आदि को अन्यत्र विहार की आज्ञा दी। भयंकर दुष्काल के कारण भिक्षा की दुर्लभता देखकर वज्रसेन मुनि ने कहा मैं विद्या के बल से भिक्षा लाकर तुम्हारा पोषण करूँगा। और यदि विद्यापिंड पसंद न हो तो अनशन व्रत स्वीकार करना चाहिए।
एक छोटे से बालमुनि को किसी बहाने से छोड़कर वज्रस्वामी अपने 500 शिष्यो के साथ पर्वत पर चढ़ने लगे। उस समय इस बालमुनि ने सोचा, यदि मैं भी पर्वत पर चढूँगा तो अपने गुरुदेव को अप्रीति होगी, इस प्रकार विचार कर पर्वत के निम्न भाग में ही बालमुनि ने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर अनशन व्रत स्वीकार कर लिया। मक्खन के पिंड की तरह बालमुनि का कोमल देह गल गया और समाधि मृत्यु प्राप्त करने देवलोक में चले गए। बालमुनि के अपूर्व सत्त्व से प्रसन्न हुए देवताओं ने आकर उनका महोत्सव किया।