निः स्पृहि सूरी ने पात्रसहित वह सुवर्णरस कचरे में फिकवा दिया।
क्या जैनाचार्य धन से खरीदे जा सकते हैं ? कदापि नहीं.
सुवर्णरस की ऐसी उपेक्षा देखकर उस सेवक को बड़ा अफसोस हुआ। आचार्य श्री ने कहा अरे! तू व्यर्थ चिंता क्यों करता है , तुझे पात्र और भोजन हो जाएगा। आचार्य श्री की सूचना से उसे श्रावक के घर भोजन करा दिया गया।
भोजन कर वह शिष्य आचार्यश्री के पास आया। आचार्य श्री ने उसे अपने पेशाब से भरी हुई कांच की शीशी दे दी और बोले, मेरी ओर से यह नागार्जुन को दे देना।
सेवक ने सोचा अहो!ये कैसे पागल है ? ऐसे मूर्खों के साथ दोस्ती का नागार्जुन को क्या लाभ होगा ? इत्यादि सोचकर उस सेवक ने जाकर वह शीशी नागार्जुन को सौंप दी।
नागार्जुन ने उस शीशी को सूंघा। उस में से बदबू आ रही थी। तत्काल उसे पत्थर पर गिराकर उन्होंने उसे तोड़ डाला। शीशी के टुकड़े टुकड़े हो गए और पेशाब उस पत्थर पर बह गया।
थोड़ी देर बाद ओषधि तैयार करने के लिए नागार्जुन ने उस पत्थर पर आग लगाई तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
अरे यह क्या! संपूर्ण पत्थर सुवर्ण बन गया था।
आचार्य श्री के मूत्र में इस प्रकार की सिद्धियों के देख उसका गर्व दूर हो गया। वह सोचने लगा, मुझे तो वर्षो की मेहनत के बाद सुवर्ण सिद्धि हुई है जबकि इस महात्माओं के तो मल-मूत्र में भी सिद्धियाँ स्वयं वास करती है?
नागार्जुन आचार्यश्री के अंतरंग व्यक्तित्व से अत्यंत ही प्रभावित हुआ और उसका
चरणकिंकर बन गया।
आचार्य श्री पादलेप की विद्या से शत्रुंजय महातीर्थों की यात्रा कर लौटे, तब नागार्जुन ने लैप के पहिचानने के लिए आचार्य श्री का पाद प्रक्षालन किया। पाद प्रक्षालन के जल की सुगंध से 107 ओषधियों का ज्ञान हो गया।