इसके बाद उन्होंने अन्य दर्शन के व्यक्तियों पर अपनी नजर दौड़ाई और उसी समय उन्हें राजगृह नगर में वत्सकुल में उत्प्पन हुए शय्यंभव हर तरह से योग्य दिखाई दीए । वह शय्यंभव ब्राह्मणों के पास यज्ञ करा रहे था।
अपने भावी उत्तराधिकारी को नियुक्त करने के लिए प्रभवस्वामी ने राजगृही नगरी की और यात्रा प्रारम्भ की। *श्रमणों का तो यह कर्तव्य के की जिस क्षेत्र में विचरण से लाभ होता हे उस क्षेत्र में विचरण करते ही हे*।
प्रभवस्वामी राजगृही नगरी में पधारे । प्रभवस्वामी ने आर्य शय्यंभव को अपनी और आकर्षित करने के लिये बहुत ही सुंदर योजना बनाइ ।
उन्होंने दो मुनियो को आज्ञा देते हुए कहा ‘आज तुम यज्ञशाला में जाओ और वहा आहार मिले या नही , फिर भी लौटते समय जोर से कहना -‘
*अहो कष्टं ,अहो कष्टं तत्त्वं विज्ञा याते न हि*।
‘बहुत खेद की बात हे की बहुत सा कष्ट उठाने के बाद भी तत्व को नही पहिचाना जा रहा है।
दो मुनियो ने गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य की और उन्होंने भिक्षा के लिये यज्ञशाला की और प्रयाण कर दीया ।
वे दोनो आगे बढ़ते हुए यज्ञ मंडप के समीप पहुचे गये । उन्होंने यज्ञ मंडप के द्वार को सुसज्जित देखा । समुन्नत ध्वजा शोभा म चार चाँद लगा रही थी। जल पात्र भरे हुए थे ।ब्राह्मण मंत्रोच्चार पूर्वक यज्ञ द्रव्य समर्पण करने के लिए तैयार थे।
इसी बीच वे दोनों मुनि भिक्षा के लिए यज्ञशाला में आये …. परन्तु उन ब्राह्मणों ने उन्हें भिक्षा नही दी।
वापस लौटते समय उन दोनो मुनियो ने जोर से कहा –
‘अहो कष्टं ,अहो कष्टं तत्त्वं विज्ञायते न ही’।