मंत्री के मुख्य से वररुचि के काव्यों की प्रशंसा सुनकर राजा ने तत्काल उस वररुचि को 108 सुवर्ण मुद्राएँ भेंट प्रदान की।
बस ,अब तो प्रतिदिन वररुचि राजसभा में आकर नए- नए काव्य सुनाने लगा और राजा भी उसे प्रतिदिन 108 सुवर्ण मुद्राएँ भेंट देने लगा ।
मंत्री ने सोचा ,’अहो! यह तो बड़ी गड़बड़ हो गई है।’
एक दिन मंत्री ने राजा को पूछ ही लिया , ‘राजन्! आप इस वररुचि को रोज – रोज इनाम क्यों देते हैं?’
राजा ने कहा , ‘उस दिन तुमने उसके काव्य की प्रशंसा की थी , इसलिए देता हूँ।’
मंत्री ने सोचा ,’किसी भी उपाय से यह इनाम बंद कराना ही चाहियें ।’ इस प्रकार सोचकर मंत्री ने कहा ,’राजन! मैंने उसकी प्रशंसा नहीं की थी , मैंने तो दूसरों के रचे हुए उन काव्यों की प्रशंसा की थी । वह वररुचि जो काव्य पढ़ता है, वे काव्य उसके द्वारा रचे हुए नहीं है; वे काव्य तो दूसरों के द्वारा रचे हुए है।’
मंत्री! क्या तुम सच बात कह रहे हो?
‘ हाँ, महाराजा! वह जो काव्य बोलता है; वे काव्य तो मेरी छोटी- छोटी पुत्रियाँ भी सुना सकती है। यदि आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं होता हो तो कल ही मैं आपको इस सत्य की प्रतीति करा दूंगा।’
दूसरे दिन मंत्री अपनी सातों पुत्रियों को लेकर राज दरबार में आ गया । उसने अपनी पुत्रियों को पास में बिठा दीया। तत्पश्चात वररुचि ने राजसभा में प्रवेश किया। उसने नित्यक्रम के अनुसार अत्यंत ही मधुर कंठ से स्वनिर्मित एक सौ आठ काव्य राजा को सुनाए ।
तत्काल मंत्री ने अपनी बड़ी पुत्री को वे ही काव्य सुनाने का आदेश दिया। एक ही बार ध्यानपूर्वक सुनने से मंत्री – पुत्री यक्षा को सब कुछ याद रह जाता था , अतः जो काव्य वररुचि ने सुनाए – वे सभी काव्य एक बार सुनने से यक्षा को याद हो गए थे, अतः उसने उसी लय से वे सभी काव्य राजा को सुना दिए।
यक्षा के मुख से वे सभी काव्य सुनकर राजा के आश्चर्य का पार नहा। तत्पश्चात् राजा को और अधिक विश्वास में लेने के लिए मंत्री ने अपनी दूसरी पुत्री यक्षदत्ता को वे सभी काव्य बोलने का आदेश दिया। यक्षदत्ता की यह विशेषता थी कि वह जो भी काव्य दो बार सुन लेती, उसे अच्छी तरह से याद रह जाता था, अतः वररुचि और यक्षा के मुख से दो बार उन काव्यों को सुनने के कारण यक्षदत्ता को वे सभी काव्य याद हो गए थे। उसने वे काव्य अच्छे ढंग से राजा को सुना दिए।
यक्षदत्ता के मुख से भी उन्ही काव्यों को सुनकर राजा के आश्चर्य का पार न रहा।
तत्पश्चात मंत्री की आज्ञा से क्रमशः तीसरी, चौथी, पांचवी आदि कन्याएँ भी जब उन्हीं काव्यों को अच्छी तरह से सुनाने लगी , तब तो राजा को पूर्ण विश्वास हो गया कि मंत्री की बात बिल्कुल सत्य है।
बस , मंत्री की सातों पुत्रियों के मुख से उन काव्यों को सुनने के बाद राजा ने वररुचि को कुछ भी इनाम देने से इन्कार कर दिया ।
इनाम नहीं मिलने से वररुचि ने अपने दिल में मंत्री के प्रति वैर की गांठ बांध ली . . . समय बीतने पर वह वैर की गांठ तीव्र बनती गई।