उसी समय अवसर देखकर कोशा ने कहा , ओ मूढ़ मुनिवर!तुम इस रत्नकम्बल की कीमत समझते हो, किन्तु गुरुदेव द्वारा प्रदत्त ज्ञान दर्शन और चारित्ररूपी रत्नों को अशुचि से भरपूर मेरी देह रूपी गट्टर में फेंकते हुए तुम्हे शर्म नही आ रही है? तुम मुझे मुर्ख कहते हो परन्तु क्या तुम स्वयं महामूर्ख नही हो?
वेश्या के कटाक्ष युक्त वचन सुनकर मुनिवर का कामावेग तत्काल शांत हो गया ।उन्हें अपनी भूल का पश्चात्ताप होने लगा।
मुनिवर ने कहा, हे कोशा! मै अत्यंत दुःख को देनेवाले महामोह के जाल में फंस गया था, परन्तु बुद्धि पूर्वक तुमने मेरा उद्धार किया। व्रत में लगे अतिचार आदि दोषों की शुद्धि के लिए में गुरुदेव के पास जाता हूं और उनके पास अपने पापो की आलोचना करके अपनी आत्मा को शुद्ध बनाता हूँ। तुम्हे हमेशा धर्मलाभ हो।
कोशा ने कहा, ब्रह्मचारी ऐसे आपको प्रतिबोध देने के लिए मैने आपकी कोई आशातना की हो, उसके लिए में आपसे क्षमा याचना करती हूं।
स्थूलभद्र महामुनि की स्तुति करती हुई कोशा बोली, पर्वत की गुफा में रहकर काम को जीतने वाले हजारों नर पैदा हुए है, परन्तु युवतिजन के निकट, एकांत में, भव्यमहल में रहने पर भी काम को वश करने वाले तो एक मात्र स्थूलभद्र ही है।
वह मुनि भी गुरुदेव के वचनों को याद करने लगे और मनोमन स्थूलभद्र महामुनि के महासत्त्व की भूरी भूरी अनुमोदना करने लगे।
वे मुनि अपने गुरुदेव के पास पहुचे और अपने पापो की आलोचना की।
गुरुदेव ने भी कहा, हे महानुभाव! मैंने पहले ही तुम्हे निषेध किया था। स्थूलभद्र जो कर सकता है, वह करने में कोई समर्थ नही है।
गुरुदेव के इन वचनों को सुनकर मुनिवर ने अपनी भूल स्वीकार की और गुरुदेव से क्षमा याचना की।
रथिक की दीक्षा
‘नन्दराजा को कोशा वेश्या के चरित्र संबंधी जानकारी मिली। एक बार उस राजा ने एक रथिक को वह कोशा वेश्या सौंप दी । वह रथिक कोशा वेश्या के महल में गया। कोशा ने उसे प्रतिबोध देने का निश्चय किया। वह कोशा उस रथिक के आगे स्थूलभद्र के महान् गुणों का बार-बार वर्णन करने लगी। स्थूलभद्र को छोड़कर इस जगत् में अन्य कोई धर्मी या कुशल पुरुष नही है।’