कामातुर बने हुए वह मुनि कोशा के सामने भोग की प्रार्थना करने लगे।
मुनि के मन व तन को चालित देखकर पुनः उन्हें स्थिर करने के उद्देश्य से कोशा वेश्या ने कहा, ‘हम तो धन के अधीन है; अतः यदि मेरा संग चाहते होतो मुझे धन प्रदान करे।
मुनि ने कहा, यदि नदी की रेती में से तेल निकलता होतो हमारे पास से धन मिल सकता है। हम धन कहाँ से लाए?
कोशा ने कहा यदि तुम मेरा संग चाहते होतो एक उपाय है; नेपाल देश का राजा प्रत्येक नवीन साधु को एक लाख की कीमत का रत्नकम्बल प्रदान करता है; अतः वहां जाकर रत्नकम्बल लेकर आओ, उसके बाद ही तुम अपनी मनोकामना
को पूर्ण कर सकोगे ।
कोशा के इन वचनों को सुनकर कामातुर बने वे मुनि अपने श्रमण जीवन की आचार संहिता को भूल गए और वेश्या के देह संग को पाने के लिए, उसकी इच्छानुसार चालू वर्षा ऋतु में ही नेपाल जाकर रत्नकम्बल लाने के लिए तैयार हो गए।
कामवासना से पीड़ित वे मुनि चातुर्मास दरम्यान विहार करते हुए नेपाल पहुँचे। वहाँ के राजा ने उन्हें लक्षमूल्य का रत्नकम्बल भेंट किया। उस रत्नकम्बल को लेकर जब मुनि चोरो की एक पल्ली में से प्रसार हो रहे थे , तभी वृक्ष पर बैठा पोपट चिल्लाया ,’ लक्ष जा रहा है- लक्ष जा रहा है।’
पोपट की इस बात को सुनकर चोरो ने उन मुनि को पकड़ लिया और उनके पास रहा रत्नकम्बल ले लिया। वे मुनि वापस नेपाल देश में गए और रूप परिवर्तन कर पुनः दूसरी बार राजा के पास से रत्नकम्बल प्राप्त किया । इस बार रत्नकम्बल को उन्होंने बांस की भुगली में छिपा दिया। वापस उस पोपट ने चिल्लाया, ‘लाख जा रहा है, लाख जा रहा है।’
चोरो ने पुनः उन मुनि को घेर लिया, परन्तु उनके पास से रत्नकम्बल नही मिल पाया।
आखिर अत्यंत कष्ट उठाकर वे मुनि रत्नकम्बल को लेकर कोशा वेश्या के भवन ने आ पहुँचे। उनके मन में इस बात की अपार खुशी थी की इस बार तो वेश्या अवश्य ही मेरी इच्छा को पूर्ण करेगी।
मुनि ने वह रत्नकम्बल कोशा वेश्या को प्रदान किया और कोशा वेश्या ने स्नान के पश्चात् उस रत्नकम्बल से अपने शरीर को पोछा और उसे गट्टर में फेंक दिया।
बड़ी कठिनाई से लाए हुए उस रत्नकम्बल को इस प्रकार गट्टर में फेंकते हुए देखकर मुनिवर ने कहा, अरे कोशा! क्या तुम इस रत्नकम्बल की कीमत समझती हो या नही? मैने कितना कष्ट उठाकर यह रत्नकम्बल लाया है और तू इसे इस प्रकार गट्टर में फेंकने के लिए तैयार हो गयी?’